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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  1.13.11 
अपि न: सुहृदस्तात बान्धवा: कृष्णदेवता: ।
द‍ृष्टा: श्रुता वा यदव: स्वपुर्यां सुखमासते ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
अपि—क्या; न:—हमारे; सुहृद:—शुभचिन्तक; तात—हे चाचा; बान्धवा:—मित्र; कृष्ण-देवता:—भगवान् कृष्ण की सेवा में सदैव तत्पर रहनेवाले; दृष्टा:—उन्हें देखकर; श्रुता:—या उनके विषय में सुनकर; वा—अथवा; यदव:—यदुवंशी लोग; स्व पुर्याम्—अपने-अपने निवास-स्थानों में; सुखम् आसते—सुखी तो हैं ।.
 
अनुवाद
 
 हे चाचा, आप द्वारका भी गये होंगे? उस पवित्र स्थान में यदुवंशी हमारे मित्र तथा शुभचिन्तक हैं, जो नित्य ही भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में तत्पर रहते हैं। आप उनसे मिले होंगे अथवा उनके विषय में सुना होगा? वे अपने-अपने घरों में सुखपूर्वक रह रहे हैं न?
 
तात्पर्य
 यहाँ पर प्रयुक्त विशिष्ट शब्द कृष्ण देवता: महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है, वे जो सदैव भगवान् कृष्ण की सेवा में लगे रहते हैं। यादव तथा पाण्डव, जो सदा ही भगवान् कृष्ण एवं उनकी विभिन्न दिव्य लीलाओं के विचार में मग्न रहते थे, वे सबके सब विदुर के ही समान भगवान् के शुद्ध भक्त थे। विदुर ने इसीलिए गृहत्याग किया था, जिससे वे पूर्णतया भगवान् की सेवा में लग सकें, किन्तु सारे पाण्डव तथा यादव तो सदा ही कृष्ण के विचार में डूबे रहते थे। अतएव उनके शुद्ध भक्ति-गुणों में कोई अन्तर नहीं है। शुद्ध भक्त, चाहे घर में रहे या घर छोड़ दे, उसका वास्तविक गुण तो कृष्ण के विचार में अनुकूल रूप से मग्न रहना होता है अर्थात् भलीभाँति यह जानना कि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् हैं। यद्यपि कंस, जरासंध, शिशुपाल तथा उन्हीं जैसे अन्य असुर भी भगवान् कृष्ण के विचार में सदैव निमग्न रहते थे, किन्तु वे भिन्न प्रकार से—प्रतिकूल होकर—निमग्न रहते थे या उन्हें केवल शक्तिशाली मनुष्य मानते थे। अतएव कंस तथा शिशुपाल को शुद्ध भक्तों का वह पद प्राप्त नहीं है, जो विदुर, पाण्डवों तथा यादवों जैसे शुद्ध भक्तों को प्राप्त है।

महाराज युधिष्ठिर भी भगवान् कृष्ण तथा उनके द्वारका के पार्षदों के विचार में सदैव निमग्न रहा करते थे। अन्यथा, वे विदुर से उन सबके विषय में न पूछते। अतएव महाराज युधिष्ठिर विश्व के राज्य के मामलों में लगे रहकर भी, विदुर के समान भक्ति-पद पर स्थित थे।

 
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