युधिष्ठिर:—युधिष्ठिर ने; लब्ध-राज्य:—अपने पैतृक राज्य का अधिकारी होकर; दृष्ट्वा—देखकर; पौत्रम्—नाती को; कुलम्- धरम्—वंश के अनुकूल; भ्रातृभि:—भाइयों से; लोक-पालाभै:—जो सभी पटु प्रशासक थे; मुमुदे—जीवन का भोग किया; परया—असामान्य; श्रिया—ऐश्वर्य से ।.
अनुवाद
अपना राज्य वापस पाकर तथा एक ऐसे पौत्र का जन्म देखकर, जो उनके परिवार की प्रशस्त परम्परा को आगे चलाने में सक्षम था, महाराज युधिष्ठिर ने शान्तिपूर्वक शासन चलाया और उन छोटे भाइयों के सहयोग से, जो सारे के सारे कुशल प्रशासक थे, असामान्य ऐश्वर्य का भोग किया।
तात्पर्य
महाराज युधिष्ठिर तथा अर्जुन दोनों ही, कुरुक्षेत्र युद्ध के शुरू होने के दिन से ही अप्रसन्न थे, किन्तु युद्ध में स्वजनों को मारने की अनिच्छा होते हुए भी, उन्हें उसे कर्तव्य समझकर करना पड़ रहा था, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण की परम इच्छा से इसकी योजना की गई थी। युद्ध के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ऐसे सामूहिक संहार से दुखी थे। एक तरह पाण्डवों के बाद कुरु वंश को चलानेवाला कोई नहीं था। यदि एक मात्र आशा शेष थी, तो वह पुत्रवधू उत्तरा के गर्भ में स्थित बालक था और उस पर भी अश्वत्थामा ने हमला कर दिया था, किन्तु भगवान् की कृपा से वह बालक बच गया था। अतएव सभी उपद्रवों के शान्त होने पर तथा राज्य में शान्ति स्थापित होने पर और एकमात्र बचे हुए बालक परीक्षित को देखकर युधिष्ठिर सन्तुष्ट थे और सदैव क्षणिक और भ्रांत करने वाले भौतिक सुख के प्रति आकर्षण न होने पर भी मानव होने के कारण, उन्हें कुछ चैन मिला था।
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