श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  1.13.2 
यावत: कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रत: ।
जातैकभक्तिर्गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
यावत:—वह सब; कृतवान्—उन्होंने किये; प्रश्नान्—प्रश्न; क्षत्ता—विदुर का नाम; कौषारव—मैत्रेय का नाम; अग्रत:—की उपस्थिति में; जात—बड़े होकर; एक—एक; भक्ति:—दिव्य प्रेममयी सेव; गोविन्दे—भगवान् कृष्ण की; तेभ्य:—अगले प्रश्नों के सम्बन्ध में; च—तथा; उपरराम—विराम ले लिया; ह—भूतकाल में ।.
 
अनुवाद
 
 विविध प्रश्न पूछने के बाद तथा भगवान् कृष्ण की दिव्य प्रेमामयी सेवा में स्थिर हो चुकने पर, विदुर ने मैत्रेय मुनि से प्रश्न पूछना बन्द किया।
 
तात्पर्य
 विदुर ने मैत्रेय मुनि से तब प्रश्न पूछना बन्द किया, जब मैत्रेय ऋषि ने उन्हें आश्वस्त किया कि जीवन का आश्रय-तत्त्व तो अन्तत: भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य प्रेमामयी सेवा में सुस्थापित होना है, जो गोविन्द हैं अर्थात् जो अपने भक्तों को सभी प्रकार से तुष्ट रखते हैं। बद्धजीव अर्थात् भौतिक अस्तित्व में फँसा हुआ जीव भौतिकतागुणों में अपनी इन्द्रियों को लगाकर सुख की खोज करता है, किन्तु इससे उसे सन्तोष नहीं होता। तब वह अनुभव सिद्ध तात्त्विक तर्क करने की विधि से तथा बौद्धिक करतबों से परम सत्य की खोज में जुट जाता है। किन्तु यदि उसे अन्तिम लक्ष्य प्राप्त नहीं होता, तो वह पुन: भौतिक कार्यकलापों में पतित हो जाता है और अपने आप को विविध परोपकारी तथा परमार्थ कार्य करने में लगा देता है, किन्तु इन सबसे उसे संतोष नहीं मिल पाता। अत: न तो सकाम कर्म और न ही शुष्क दार्शनिक चिन्तन से किसी को सन्तोष मिल सकता है, क्योंकि जीव स्वभावत: परमेश्वर श्रीकृष्ण का सेनातन सेवक है और सारे वैदिक ग्रन्थ इसी चरम लक्ष्य की ओर उसका मार्गदर्शन करते हैं। भगवद्गीता (१५.१५) द्वारा इस कथन की पुष्टि होती है।

विदुर के समान ही, जिज्ञासु बद्धजीव को, मैत्रेय जैसे प्रामाणिक गुरु के पास पहुँचना चाहिए और बुद्धिपरक जिज्ञासाओं द्वारा कर्म (सकाम कर्म), ज्ञान (परम सत्य को जानने के लिए दार्शनिक अनुसंधान) और योग (आत्म-साक्षात्कार की योग-विधि) के विषय में प्रत्येक वस्तु को जानने का प्रयास करना चाहिए। जो व्यक्ति अपने गुरु से प्रश्न पूछने के प्रति गम्भीरतापूर्वक प्रवृत्त नहीं होता, उसे न तो दिखावटी गुरु करने की आवश्यकता है और न उस व्यक्ति को अन्यों का गुरु होने का दिखावा करना चाहिए, यदि वह अपने शिष्य को भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति की ओर उन्मुख न कर सके। विदुर मैत्रेय जैसे गुरु के पास पहुँचने में सफल हुए थे और उन्हें जीवन का चरम लक्ष्य—गोविन्द की भक्ति—प्राप्त हो सका। अत: उनके लिए आध्यात्मिक प्रगति के विषय में और कुछ जानना शेष न बचा था।

 
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