श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  1.13.20 
येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणै: प्रियतमैरपि ।
जन: सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैर्धनादिभि: ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
येन—ऐसे काल द्वारा खींचा गया; च—तथा; एव—निश्चय ही; अभिपन्न:—पकड़ में या प्रभाव में; अयम्—यह; प्राणै:— जीवन से; प्रिय-तमै:—जो सबों को अत्यन्त प्रिय है; अपि—यद्यपि; जन:—व्यक्ति; सद्य:—शीघ्र; वियुज्येत—त्याग दे; किम् उत अन्यै:—अन्य वस्तु के विषय में क्या कहा जाय; धन-आदिभि:—यथा धन, सम्मान, सन्तान, भूमि तथा घर ।.
 
अनुवाद
 
 जो भी सर्वोपरि काल (शाश्वत समय) के प्रभाव में है, उसे अपना सबसे प्रिय जीवन काल को अर्पित करना पड़ता है, अन्य वस्तुओं यथा धन, सम्मान, सन्तान, भूमि तथा घर का तो कुछ कहना ही नहीं।
 
तात्पर्य
 एक महान् भारतीय वैज्ञानिक जो आयोजन करने के कार्य में व्यस्त रहता था, जब योजना आयोग की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बैठक में भाग लेने जा रहा था, तो सहसा उसे अजेय काल का बुलावा आ गया और उसे अपना जीवन, पत्नी, बच्चे, घर, भूमि, धन इत्यादि सब कुछ त्यागना पड़ा। भारत में राजनीतिक उथल-पुथल तथा पाकिस्तान एवं हिन्दुस्तान में इसके विभाजन के समय अनेक धनी तथा प्रभावशाली भारतीयों को काल के वश में आकर अपना जीवन, सम्पत्ति तथा सम्मान, सभी कुछ समर्पित कर देना पड़ा। सारे विश्व में, सारे ब्राह्मण्ड में, इस तरह के सैकड़ों-हजारों उदाहरण भरे पड़े हैं, जो सारे काल के प्रभाव के कारण हैं। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि ब्रह्माण्ड में कोई भी ऐसा शक्तिशाली जीव नहीं है, जो काल के प्रभाव को जीत सके। अनेक कवियों ने काल के प्रभाव के विषय में विलाप करते हुए कविताएँ लिखीं हैं। काल के प्रभाव से ही ब्रह्माण्डों में अनेक विनाश-की घटनाएँ होती रही हैं और कोई भी उन्हें किसी साधन से रोक नहीं पाया। यहाँ तक कि हमारे हररोज के जीवन में ऐसी अनेक बातें घटती रहती हैं, जिनमें हमारा वश नहीं चलता और हमें उन्हें सहना पड़ता है। उनका कोई निवारक उपाय नहीं होता। यही काल का परिणाम है।
 
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