श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  1.13.23 
अहो महीयसी जन्तोर्जीविताशा यथा भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—ओह; महीयसी—शक्तिमान; जन्तो:—जीवों की; जीवित-आशा—जीवन की उम्मीद; यथा—जिस तरह; भवान्—आप हैं; भीम—भीमसेन (युधिष्ठिर के भाई) के; अपवर्जितम्—जूठा; पिण्डम्—भोजन; आदत्ते—खाया गया; गृह-पाल-वत्— घेरलू कुत्ते के समान ।.
 
अनुवाद
 
 ओह! प्राणी में जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! निश्चय ही आप एक घेरलू कुत्ते की भाँति रह रहे हैं और भीम द्वारा दिये गये जूठन को खा रहे हैं।
 
तात्पर्य
 साधु को कभी भी सुखमय जीवन बिताने की इच्छा से, राजाओं या धनियों की चापलूसी नहीं करनी चाहिए। साधु को चाहिए कि वह गृहस्थों से जीवन के कटु सत्य के बारे में बताए, जिससे वे इस भौतिक अस्तित्व के संकटपूर्ण अनिश्चिात जीवन के विषय में सचेत हो सकें। धृतराष्ट्र गृहस्थ जीवन के प्रति आसक्त वृद्ध पुरुष के जीते-जागते उदाहरण हैं। वे वास्तव में दरिद्र हो चुके थे, फिर भी वे पाण्डवों के घर में सुख-पूर्वक जीवन बिताना चाह रहे थे। इनमें से भीमसेन का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है, क्योंकि उसने धृतराष्ट्र के दो प्रमुख पुत्रों—दुर्योधन तथा दुस्शासन का स्वयं वध किया था। ये दोनों पुत्र अपने छल-कपट एवं दुष्ट कार्यों के कारण उन्हें अत्यन्त प्रिय थे और भीमसेन का विशेष उल्लेख इसलिए हुआ है, क्योंकि उसने इन दोनों प्रिय पुत्रों को मारा था। तो धृतराष्ट्र पाण्डवों के घर में क्यों रह रहे थे? क्योंकि सारा अपमान सहकर भी वे सुखपूर्वक जीवन बिताना चाह रहे थे। अत: विदुर को आश्चर्य हो रहा था कि जीवित रहने की आशा कितनी प्रबल होती है। यह जीविताशा सूचित करती है कि जीव शाश्वत है और वह अपने शारीरिक निवासस्थान को बदलना नहीं चाहता। मूर्ख व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसे यह शरीर सीमित अवधि के लिए बन्दी के रूप में बिताने के लिए मिला है और मनुष्य शरीर तो अनेकानेक जन्मांतरों के बाद मिलता है, जो भगवद्धाम वापस जाने के लिए आत्म-साक्षात्कार का सुअवसर होता है। लेकिन धृतराष्ट्र जैसे व्यक्ति, लाभ-सहित सुखी रहकर जीवित रहने की योजनाएँ बनाते हैं, क्योंकि उन्हें असली रूप में ज्ञान नहीं होता। धृतराष्ट्र अन्धे थे और जीवन की समस्त विषमताओं के बीच वे सुखपूर्वक जीवित रहने की आशा लगाये हुए थे। विदुर जैसे साधु ऐसे अंधे व्यक्तियों को सावधान करने के लिए तथा शाश्वत जीवन बिताने के लिए भगवद्-धाम जाने में सहायता करने के लिए होते हैं। एक बार वहाँ जाकर कोई इस दुखमय संसार में वापस नहीं आना चाहता। अतएव हम सोच सकते हैं कि महात्मा विदुर जैसे साधु पुरूषों को कितना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने के लिए सौंपा जाता है।
 
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