तस्य—उसका; अपि—के बावजूद; तव—तुम्हारा; देह:—शरीर; अयम्—यह; कृपणस्य—कंजूस का; जिजीविषो:—जीवन की इच्छा करनेवाले का; परैति—क्षीण हो जाएगा; अनिच्छत:—न चाहते हुए भी; जीर्ण:—टूटा-फूटा; जरया—पुराने; वाससी—वस्त्रों; इव—सदृश ।.
अनुवाद
मरने के लिए आपकी अनिच्छा होने तथा आत्म-सम्मान की बलि देकर जीवित रहने की आपकी इच्छा होने पर भी, आपका यह कृपण शरीर निश्चय ही क्षीण होगा तथा पुराने वस्त्र की भाँति नष्ट हो जाएगा।
तात्पर्य
कृपणस्य जिजीविषो: शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्यों के दो वर्ग होते हैं—एक कृपण कहलाते हैं और दूसरे ब्राह्मण। कृपण अर्थात् कंजूस अपने भौतिक शरीर का कोई मूल्यांकन नहीं कर पाता, किन्तु ब्राह्मण अपना तथा अपने शरीर का पूरा-पूरा मूल्यांकन कर सकता है। कृपण अपने शरीर का गलत मूल्यांकन करने के कारण, इन्द्रियतृप्ति का भरपूर ताकत से भोग करना चाहता है और बुढ़ापे में भी औषधियों के उपचार से या किसी अन्य तरह से जवान बनना चाहता है। धृतराष्ट्र को यहाँ पर कृपण कहा गया है, क्योंकि वह अपने शरीर का कोई मूल्यांकन किये बिना येन-केन-प्रकारेण जीवित रहना चाहता है। विदुर उसकी आँखें खोलना चाह रहे हैं कि वह निश्चित अवधि से अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकता और अब उसे मरने के लिए तैयार रहना चाहिए। चूँकि मृत्यु अवश्यम्भावी है, तो उसे जीवित रहने के लिए ऐसी अपमाजनक स्थिति का स्वीकार क्यों करना चाहिए? श्रेयस्कर तो यही है कि मृत्यु की जोखिम उठाते हुए भी समुचित राह पकड़ी जाय। यह मनुष्य जीवन भौतिक अस्तित्त्व के सारे दुखों को समाप्त करने के लिए मिला है और जीवन को इस प्रकार नियमित बनाना चाहिए कि वांछित लक्ष्य प्राप्त हो सके। धृतराष्ट्र, जीवन के प्रति गलत धारणा के कारण, अपनी अर्जित शक्ति का अस्सी प्रतिशत भाग पहले ही गँवा चुके थे, अतएव उन्हें कृपण जीवन के अन्तिम दिनों का सदुपयोग परम कल्याण के लिए करना चाहिए। ऐसा जीवन कृपण कहलाता है, क्योंकि इस तरह कोई मनुष्य जीवन की सारी निधियों का सही-सही उपयोग नहीं कर पाता। सौभाग्य से ही, ऐसे कृपण मनुष्य की विदुर जैसे स्वरूप-सिद्ध व्यक्ति से भेंट होती है और उसके उपदेश से भवसागर के अज्ञान से छुटकारा प्राप्त होता है।
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