गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धन: ।
अविज्ञातगतिर्जह्यात् स वै धीर उदाहृत: ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
गत-स्व-अर्थम्—ठीक से उपयोग किये बिना; इमम्—इस; देहम्—भौतिक शरीर को; विरक्त:—अन्यमनस्क; मुक्त—मुक्त होकर; बन्धन:—सारे बन्धनों से; अविज्ञात-गति:—अज्ञात लक्ष्य; जह्यात्—इस शरीर को त्याग देना चाहिए; स:—ऐसा व्यक्ति; वै—निश्चय ही; धीर:—अविचल; उदाहृत:—कहलाता है ।.
अनुवाद
वह धीर कहलाता है, जो किसी अज्ञात सुदूर स्थान को चला जाए और जब यह भौतिक शरीर व्यर्थ हो जाए, तब सारे बन्धनों से मुक्त होकर अपने शरीर को त्यागता है।
तात्पर्य
महान् भक्त तथा गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य नरोत्तमदास ठाकुर का गीत है, “हे भगवान्! मैंने अपना जीवन व्यर्थ गँवा दिया। मनुष्य शरीर पाने पर भी, मैंने आपकी उपासना की उपेक्षा की है, अत: मैंने जानबूझ कर विषपान किया है।” दूसरे शब्दों में, मनुष्य का शरीर विशेष रूप से भगवान् की भक्तिमय सेवा के ज्ञान के अनुशीलन के लिए मिला है, जिसके बिना जीवन चिन्ताओं से भरा तथा कष्टमय बन जाता है। अतएव जिसने ऐसे सांस्कृतिक कार्यकलापों के बिना ही अपना जीवन गवाँ दिया हो, तो उसे सलाह दी जाती है कि वह मित्रों तथा सम्बन्धियों को बताये बिना घर छोड़ दे और इस तरह परिवार, समाज, देश इत्यादि के बन्धनों से मुक्त हो ले तथा ऐसे अज्ञात स्थान में शरीर का त्याग करे, जिससे लोग यह न जान सकें कि कब और कैसे उसकी मृत्यु हुई। धीर का अर्थ है, जो बहुत उत्तेजित किये जाने पर भी विचलित न हो। मनुष्य अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अपने स्नेहमय सम्बन्धों के कारण सुखमय गृहस्थ जीवन का त्याग नहीं कर पाता। परिवार के प्रति ऐसे व्यर्थ के स्नेह से आत्म-साक्षात्कार अवरूद्ध हो जाता है और जो कोई ऐसे सम्बन्ध को भुलाने में समर्थ होता है, वह धीर कहलाता है। किन्तु यह तो हताश जीवन का वैराग्य-पथ है। ऐसे वैराग्य का स्थिरीकरण प्रामाणिक सन्तों तथा स्वरूप-सिद्ध महात्माओं के सान्निध्य से ही सम्भव है, जिससे मनुष्य भगवद्भक्ति में प्रवृत्त हो सकता है। दिव्य सेवाभाव को जागृत करके भगवान् के चरणकमलों में एकनिष्ठ शरणागति सम्भव है। भगवान् के शुद्ध भक्तों की संगति से ऐसा सम्भव हो पाता है। धृतराष्ट्र भाग्यशाली थे कि उनका ऐसा भाई था, जिसकी संगति उनके हताश जीवन के लिए मुक्ति का साधन थी।
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