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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  1.13.28 
अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञातगतिर्भवान् ।
इतोऽर्वाक्प्रायश: काल: पुंसां गुणविकर्षण: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—अतएव; उदीचीम्—उत्तरी; दिशम्—दिशा को; यातु—चले जाइये; स्वै:—अपने सम्बन्धियों द्वारा; अज्ञात—जाने बिना; गति:—गतिविधियाँ; भवान्—आपकी; इत:—इसके बाद; अर्वाक्—सूत्रपात होगा; प्रायश:—सामान्यतया; काल:—काल, समय; पुंसाम्—मनुष्यों के; गुण—गुण; विकर्षण:—ह्रास ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव कृपया आप अपने कुटुम्बियों को बताये बिना, तुरन्त उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर दीजिए, क्योंकि शीघ्र ही ऐसा समय आनेवाला है, जिसमें मनुष्य के सद्गुणों का ह्रास होगा।
 
तात्पर्य
 मनुष्य धीर बनकर या अपने सम्बन्धियों को बताये बिना घर छोडक़र, हताश जीवन की क्षतिपूर्ति कर सकता है और विदुर ने अपने अग्रज को अविलम्ब इस मार्ग को अपनाने की सलाह दी, क्योंकि कलियुग का शीघ्र ही आगमन होने वाला था। बद्धजीव भौतिक संसर्ग के कारण पहले से पतित हुआ होता है और कलियुग में तो मनुष्य के सद्गुण निम्नतम स्तर तक पहुँच चुके होंगे। उन्हें सलाह दी गई है कि कलियुग के आगमन के पूर्व ही वे घर छोड़ दें, क्योंकि विदुर ने जीवन के कई सत्य के विषय में अपने बहुमूल्य उपदेशों द्वारा जो वातावरण उत्पन्न किया था, वह कलियुग के तेजी से निकट आने के कारण लुप्त हो जाएगा। सामान्य व्यक्ति के लिए, नरोत्तम बनना अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण पर पूर्णतया निर्भर रहनेवाला उत्तम कोटि का मनुष्य बनना सम्भव नहीं है। भगवद्गीता (७.२८) में कहा गया है कि जो व्यक्ति पापकर्मों के दूषणों से पूर्णतया रहित हो जाता है, वही भगवान् श्रीकृष्ण पर आश्रित रह सकता है। धृतराष्ट्र को विदुर ने सलाह दी कि यदि वे संन्यासी या नरोत्तम नहीं बन सकते, तो प्रारम्भ में कम से कम धीर तो बन लें। धीर अवस्था से नरोत्तम अवस्था प्राप्त करने के लिये मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में निरन्तर प्रयास करना पड़ता है। धीर अवस्था योग-पद्धति के दीर्घकालीन अभ्यास से, प्राप्त होती है, किन्तु विदुर की कृपा से धीर अवस्था के साधनों के ग्रहण करने की इच्छा करने से ही यह अवस्था प्राप्त की जा सकती है, जो संन्यास की प्रारम्भिक अवस्था है। संन्यास अवस्था परमहंस अवस्था अर्थात् प्रथम श्रेणी के भक्त की प्रारम्भिक अवस्था है।
 
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