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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  1.13.29 
एवं राजा विदुरेणानुजेन
प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढ: ।
छित्त्वा स्वेषु स्‍नेहपाशान्द्रढिम्नो
निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; राजा—राजा धृतराष्ट्र; विदुरेण अनुजेन—अपने छोटे भाई विदुर द्वारा; प्रज्ञा—आत्मनिरीक्षण का ज्ञान; चक्षु:—आँखें; बोधित:—समझी जाकर; आजमीढ:—धृतराष्ट्र, जो आजमीढ़ वंश की संतान थे; छित्त्वा—तोडक़र; स्वेषु— सम्बन्धियों के विषय में; स्नेह-पाशान्—स्नेह के बन्धनों को; द्रढिम्न:—दृढ़ता के कारण; निश्चक्राम—बाहर चले गये; भ्रातृ— अपने भाई द्वारा; सन्दर्शित—दिखलाये हुए; अध्वा—मुक्तिपथ ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार आजमीढ़ के वंशज महाराज धृतराष्ट्र ने आत्मनिरीक्षणयुक्त ज्ञान (प्रज्ञा) द्वारा पूर्णत: आश्वस्त होकर तुरन्त ही अपने दृढ़ संकल्प से पारिवारिक स्नेह के सारे दृढ़ पाश तोड दिये। तत्पश्चात् वे तत्काल घर छोडक़र, अपने छोटे भाई विदुर द्वारा दिखलाये गये मुक्ति-पथ पर निकल पड़े।
 
तात्पर्य
 श्रीमद्भागवत के सिद्धान्तों के महान् प्रचारक भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने साधुओं अर्थात् भगवान् के शुद्ध भक्तों की संगति पर विशेष बल दिया है। उन्होंने बताया है कि शुद्ध भक्त के साथ एक क्षण की संगति से भी उसे सारी सिद्धि प्राप्त हो सकती है। हम यह स्वीकार करते हुए तनिक भी लज्जित नहीं हैं कि हमने अपने व्यावहारिक जीवन में ऐसा ही अनुभव किया है। यदि कुछ मिनट की प्रथम भेंट के समय कृष्ण कृपामूर्ति श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज की कृपा न हुई होती, तो अंग्रेजी में श्रीमद्भागवत के वर्णन का यह गुरुतर कार्य स्वीकार कर पाना हमारे लिए असम्भव होता। उस उपयुक्त क्षण में उनका दर्शन किये बिना हम एक धुरंधर व्यापारी होते, किन्तु मुक्ति के मार्ग पर चलने तथा अपने गुरु के आदेशानुसार भगवान् की सेवा करने के मार्ग पर अग्रसर होने में कभी समर्थ न हुए होते। और यहाँ पर प्रस्तुत है दूसरा व्यावहारिक उदाहरण—धृतराष्ट्र के साथ विदुर की संगति का प्रभाव। महाराज धृतराष्ट्र राजनीति, अर्थशास्त्र तथा पारिवारिक आसक्ति से सम्बद्ध भौतिक आकर्षण के जाल में मजबूती से बँधे हुए थे और अपनी सुनियोजित परियोजनाओं को सफल बनाने के लिये उन्होंने पूरी शक्ति से कार्य किया, किन्तु उन्हें अपने भौतिक कार्यकलापों में अथ से इति तक, हताशा ही हाथ लगी। इसके बावजूद, अपने जीवन की विफलताओं के होते हुए भी, उन्होंने आदर्श साधु के प्रतीक समान भगवान् के शुद्ध भक्त के शक्तिशाली उपदेशों से आत्म-साक्षात्कार में सर्वाधिक सफलता प्राप्त की। अतएव शास्त्रों का आदेश है कि केवल साधुओं की संगति करनी चाहिये और अन्य समस्त प्रकार की संगतियों का तिरस्कार कर देना चाहिए। ऐसा करने से साधुओं से श्रवण करने के लिए पर्याप्त सुअवसर प्राप्त हो सकेगा, जो इस भौतिक जगत में माया के स्नेह-बन्धन को छिन्न भिन्न करनेवाले हैं। तथ्य यह है कि यह भौतिक जगत महान् मोह (भ्रम) है, क्योंकि इसमें प्रत्येक वस्तु यथार्थ सत्य प्रतीत होती है, लेकिन दूसरे ही क्षण वह समुद्र के उफनते फेन की भाँति या आकाश में बादलों की भाँति छूमन्तर हो जाती है। आकाश में बादल सचमुच ही वास्तविक प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनसे वर्षा होती है और वर्षा के कारण बहुत सारी क्षणभंगुर हरी-हरी वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, किन्तु काल-क्रम में बादल, वर्षा तथा हरी-हरी वनस्पतियाँ सब कुछ विलुप्त हो जाता हैं। लेकिन आकाश बना रहता है और आकाश में चमचमाते तारे हमेशा ही बने रहते हैं। इसी प्रकार परम सत्य जिसकी उपमा आकाश से दी जाती है, शाश्वत बने रहते हैं और बादल स्वरूप मोह (भ्रम) आता तथा जाता रहता है। मूर्ख जीव क्षणिक बादल के प्रति आकृष्ट होते हैं, लेकिन जो बुद्धिमान हैं, वे शाश्वत आकाश तथा वहाँ की समस्त विविधता से सरोकार रखते हैं।
 
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