श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 3-4
 
 
श्लोक  1.13.3-4 
तं बन्धुमागतं द‍ृष्ट्वा धर्मपुत्र: सहानुज: ।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूत: शारद्वत: पृथा ॥ ३ ॥
गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्च जामय: पाण्डोर्ज्ञातय: ससुता: स्त्रिय: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उस; बन्धुम्—सम्बन्धी को; आगतम्—वहाँ आया हुआ; दृष्ट्वा—देखकर; धर्म-पुत्र:—युधिष्ठिर ने; सह-अनुज:—अपने छोटे भाइयों के साथ; धृतराष्ट्र:—धृतराष्ट्र; युयुत्सु:—सात्यकि; च—तथा; सूत:—संजय; शारद्वत:—कृपाचार्य; पृथा—कुन्ती; गान्धारी—गान्धारी; द्रौपदी—द्रौपदी; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मणों; सुभद्रा—सुभद्रा; च—तथा; उत्तरा—उत्तरा; कृपी—कृपी; अन्या:— अन्य लोग; च—तथा; जामय:—अन्य परिवारवालों की पत्नियाँ; पाण्डो:—पाण्डुओं की; ज्ञातय:—पारिवारिक सदस्य; स सुता:—अपने-अपने पुत्रों सहित; स्त्रिय:—स्त्रियाँ ।.
 
अनुवाद
 
 जब उन्होंने देखा कि विदुर राजमहल लौट आये हैं, तो—महाराज युधिष्ठिर, उनके छोटे भाई, धृतराष्ट्र, सात्यकि, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी, कौरवों की अन्य पत्नियाँ तथा अपने-अपने बच्चों के साथ स्त्रियों समेत सारे निवासी—सभी अत्यन्त हर्षित होकर तेजी से उनकी ओर बढ़े। ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्होंने दीर्घकाल के बाद अपनी चेतना फिर से प्राप्त की हो।
 
तात्पर्य
 गान्धारी—विश्व के इतिहास की आदर्श सती महिला। ये गान्धार के राजा (अब काबुल का कन्दहार) महाराज सुबल की कन्या थीं। उन्होंने कौमार अवस्था में शिवजी की आराधना की थी। सामान्यतया हिन्दू कुमारिकाएँ उत्तम पति प्राप्त करने के लिए शिवजी की आराधना करती हैं। गान्धारी ने शिवजी को प्रसन्न कर लिया और सौ पुत्र प्राप्त करने का वर प्राप्त करके धृतराष्ट्र से सगाई कर ली, यद्यपि वे जन्मांध थे। जब गान्धारी को पता चला कि उनका होनेवाला पति अन्धा है, तो उन्होंने अपने जीवन-संगी का अनुगमन करने के लिए स्वेच्छा से अन्धा बनने का निश्चय कर लिया। अतएव उन्होंने अपनी आँखों में रेशम की अनेक पट्टियाँ बाँध लीं और वे अपने बड़े भाई शकुनि के मार्गदर्शन में धृतराष्ट्र के साथ ब्याह दी गईं। वे अपने समय की सर्वाधिक सुन्दर कन्या थीं और समान रूप से स्त्री योचित गुणों से युक्त थीं, जिससे कौरव दरबार का प्रत्येक सदस्य उनसे प्रेम करता था। किन्तु इन सब सद्गुणों के होते हुए भी उनमें स्त्री की सहज दुर्बलताएँ थीं और जब कुन्ती ने पुत्र को जन्म दिया तो ये उसके प्रति ईर्ष्या करने लगीं। यद्यपि दोनों रानियाँ गर्भवती थीं, किन्तु पहले कुन्ती ने पुत्र को जन्म दिया। इस तरह गान्धारी क्रुद्ध हो गईं और अपने उदर पर प्रहार किया। फलस्वरूप उसने मांस के एक पिण्ड को ही जन्म दिया, लेकिन चूँकि वे व्यासदेव की भक्त थीं, अतएव व्यासदेव की आज्ञा से उस पिण्ड को सौ भागों में विभक्त कर दिया गया और इनमें से प्रत्येक भाग धीरे-धीरे बालक के रूप में विकसित हो गया। इस प्रकार, एक सौ पुत्रों की माता बनने की उनकी मनोकामना पूरी हो गई और वे उन सबों का अपनी उच्च स्थिति के अनुसार पालन-पोषण करने लगीं। जब कुरुक्षेत्र-युद्ध का षड्यंत्र चल रहा था, तो वे पाण्डवों से युद्ध किये जाने के पक्ष में न थीं, अपितु उन्होंने अपने पति धृतराष्ट्र को ऐसे बन्धुघाती युद्ध के लिए लांछित भी किया। वे चाहती थीं कि राज्य को दो भागों में विभक्त किया जाय और पाण्डु पुत्रों तथा अपने पुत्रों को एक-एक भाग दे दिया जाय। जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में उनके सारे पुत्र मारे गये तो वे अत्यन्त शोकमग्र हुईं और वे भीमसेन तथा युधिष्ठिर को शाप देना चाहती थीं, किन्तु व्यासदेव ने उन्हें रोक लिया। भगवान् कृष्ण के समक्ष दुर्योधन तथा दु:शासन की मृत्यु पर उनका विलाप अत्यन्त कारुणिक था और भगवान् कृष्ण ने उन्हें दिव्य संदेश द्वारा सान्त्वना दी। वे कर्ण की मृत्यु से भी उतनी ही दुखी थीं और उन्होंने भगवान् कृष्ण से कर्ण की पत्नी का विलपना बतलाया। जब श्रील व्यासदेव ने उन्हें उनके मृत पुत्रों को दिखलाया, जिनकी बाद में स्वर्गलोक में उन्नति हुई, तब उन्हें सान्त्वना प्राप्त हुई। वे गंगा के मुहाने के निकट हिमालय के जंगलों में अपने पति के साथ मरीं; वे दावाग्नि में जल मरीं। महाराज युधिष्ठिर ने अपने चाचा तथा चाची का अन्तिम संस्कार किया।

पृथा—ये महाराज शूरसेन की पुत्री तथा भगवान् कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं। बाद में महाराज कुन्तिभोज ने उन्हें गोद ले लिया था, अतएव वे कुन्ती कहलाईं। वे भगवान् की विजया शक्ति की अवतार थीं। जब उच्चतर ग्रहमंडल से स्वर्ग के निवासी राजा कुन्तीभोज को मिलनेके लिए आते थे, तो कुन्ती उनके स्वागत में लगी रहती थीं। उन्होंने महान् योगी दुर्वासा मुनि की भी सेवा की थी। दुर्वासा ने उनकी अच्छी सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें एक मंत्र दिया, जिससे वे मनवांछित देवता का आवाहन कर सकती थीं। उन्होंने उत्सुकतावश तुरन्त ही सूर्यदेव का आवाहन किया, जिन्होंने उनके साथ समागम करना चाहा, किन्तु उन्होंने ऐसा करने से इनकार किया। लेकिन जब सूर्यदेव ने आश्वस्त किया कि इससे उनका कौमार्य भंग नहीं होगा, तो उन्होंने उनका प्रस्ताव मान लिया। इस समागम के कारण वे गर्भवती हो गईं और उनसे कर्ण का जन्म हुआ। सूर्य की कृपा से वे पुन: कुमारी कन्या में परिणत हो गईं लेकिन माता-पिता के भय से उन्होंने अपने नवजात शिशु, कर्ण का परित्याग कर दिया। तत्पश्चात् जब पति चुनने की बारी आई, तो उन्होंने स्वेच्छा से पाण्डु को पति-रूप में चुना। बाद में महाराज पाण्डु गृहस्थ जीवन त्याग कर संन्यास ग्रहण करना चाहते थे, किन्तु कुन्ती ने अपने पति को ऐसा नहीं करने दिया। अन्त में महाराज पाण्डु ने उन्हें अनुमति दे दी कि वे उपयुक्त महापुरुष का आवाहन करके पुत्र प्राप्त कर सकती हैं। पहले कुन्ती ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया, लेकिन जब पाण्डु ने अनेक उपयुक्त दृष्टान्त प्रस्तुत किये, तो वे राजी हो गईं। इस तरह दुर्वासा मुनि द्वारा प्रदत्त मंत्र से उन्होंने धर्मराज का आवाहन किया, जिससे युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसके बाद उन्होंने वायुदेव का आवाहन किया, तो भीम उत्पन्न हुआ। उन्होंने स्वर्ग के राजा इन्द्र का आवाहन करने पर अर्जुन का जन्म हुआ। नकुल तथा सहदेव का जन्म स्वयं पाण्डु ने अश्विनीकुमारों द्वारा माद्री के गर्भ से कराया। बाद में जब महाराज पाण्डु अल्प आयु में ही दिवंगत हो गये, तो कुन्ती इतनी दुखी हुईं कि उन्हें मूर्छा आ गई। तब कुन्ती तथा माद्री दोनों सह-पत्नियों ने यह निश्चय किया कि कुन्ती पाँचों अल्प-वयस्क बालकों, पाण्डवों को पालने के लिए जीवित रहें और माद्री अपने पति के साथ सती हों। वहाँ पर उपस्थित शतसृङ्ग तथा अन्य उपस्थित महर्षियों ने इस निर्णय का समर्थन किया।

बाद में जब दुर्योधन के षड्यंत्र से पाण्डवों को राज्य से बाहर निकाल दिया गया, तब कुन्ती अपने पुत्रों के साथ-साथ रहीं और उन दिनों में उन्होंने सारे कष्ट उठाये। वनवास के समय एक असुर कन्या हिडिम्बा ने भीम को पति बनाना चाहा। भीम ने इनकार कर दिया, किन्तु जब कन्या कुन्ती तथा युधिष्ठिर के पास पहुँची, तो उन्होंने भीम को आदेश दिया कि वह उसका प्रस्ताव स्वीकार करे और उसे पुत्र-प्रदान करे। इस संयोग से घटोत्कच का जन्म हुआ और उसने अपने पिता की ओर से कौरवों के विरुद्ध वीरतापूर्वक युद्ध किया। उनके वनवास-काल में सभी पाण्डव एक ब्राह्मण परिवार के साथ रहे, जो बकासुर राक्षस के कारण अत्यन्त व्यथित था। कुन्ती ने भीम को आदेश दिया कि वह बकासुर का वध करके ब्राह्मण परिवार को असुर के उत्पीडऩों से बचाए। उन्होंने युधिष्ठिर को सलाह दी कि वे पांचाल देश के लिए प्रस्थान करें। इसी पांचाल देश में अर्जुन ने द्रौपदी को प्राप्त किया, लेकिन कुन्ती के आदेश से पाँचों भाई पांचाली या द्रौपदी के समान रूप से पति बने। वह व्यासदेव की उपस्थिति में पाँचों पाण्डवों के साथ ब्याही गई। कुन्तीदेवी अपने प्रथम पुत्र कर्ण को कभी भी नहीं भूल पाईं। उन्होंने कुरुक्षेत्र-युद्ध में कर्ण की मृत्यु होने पर विलाप किया और अपने अन्य पुत्रों के समक्ष स्वीकार किया कि महाराज पाण्डु से विवाह करने के पूर्व ही कर्ण का जन्म हो चुका था। कुरुक्षेत्र-युद्ध के बाद, जब कृष्ण अपने घर वापस जाने लगे, तब तो उन्होंने जो प्रार्थनाएँ की, वे सर्वोत्कृष्ट हैं। बाद में वे गान्धारी के साथ घोर तपस्या करने के लिए जंगल चली गईं। वे प्रत्येक तीसवें दिन पर भोजन करतीं। अन्तत: वे ध्यान में लीन होकर, दावाग्नि में जलकर भस्म हो गईं।

द्रौपदी—ये महाराज द्रुपद की सर्वश्रेष्ठ सती पुत्री तथा इन्द्रपत्नी देवी शची की अंशावतार थीं। महाराज द्रुपद ने मुनि यज की अधीक्षता में एक महान् यज्ञ सम्पन्न किया। पहली आहुति के साथ धृष्टद्युम्न का जन्म हुआ, और द्वितीय आहुति से द्रौपदी जन्मीं। अतएव ये धृष्टद्युम्न की बहन हैं और पांचाली के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। पाँचों पाण्डवों ने इन्हें पत्नी के रूप में ब्याहा और हर एक पति से इन्हें एक-एक पुत्र प्राप्त हुआ। महाराज युधिष्ठिर से प्रतिभित, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक तथा सहदेव से श्रुतकर्मा का जन्म हुआ। ये अपनी सास कुन्ती के ही समान अत्यन्त सुन्दरी बताई गई हैं। इनके जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि इनका नाम कृष्णा होगा। साथ ही यह भी आकाशवाणी हुई कि इनका जन्म कई क्षत्रियों का वध करने के लिए हुआ है। शंकर के आशीर्वाद से इन्हें एक से एक योग्य पाँच पति मिले। जब उन्होंने स्वयं अपना पति चुनना चाहा, तो विश्व भर के देशों के राजा तथा राजकुमार आमंत्रित किये गये। वह पाण्डवों के वनवास के समय पाण्डवों से विवाहित हुईं। किन्तु जब वे अपने घर वापस गये, तो महाराज द्रुपद ने उन्हें प्रचुर दहेज दिया। धृतराष्ट्र की सभी बहुओं ने द्रौपदी का स्वागत किया। जब वे जुए में हार दी गईं, तो उन्हें सभा भवन में जबरन घसीट कर लाया गया और दु:शासन द्वारा नग्न किये जाने का यत्न किया गया, यद्यपि वहाँ पर भीष्म तथा द्रोण जैसे गुरुजन उपस्थित थे। वे भगवान् कृष्ण की परम भक्त थीं। उनकी प्रार्थना सुनकर, भगवान् ने स्वयं असीम वस्त्र बनाकर उन्हें अपमान से बचाया। जब जटासुर नाम के राक्षस ने उनका अपहरण किया, तो भीमसेन ने उसका वध करके उनकी रक्षा की। उन्होंने भगवान् कृष्ण की कृपा से पाण्डवों को दुर्वासा मुनि के शाप से बचाया। जब पाण्डव विराट के राजमहल में अज्ञातवास कर रहे थे, तो कीचक उनके अपूर्व सौन्दर्य पर मोहित हो गया। तब भीमसेन की सहायता से इस दुष्ट का वध किया गया और इस तरह वे बच गईं। जब अश्वत्थामा ने उनके पाँचों पुत्रों का वध कर दिया, तो वे अत्यन्त शोकाकुल हुई। अन्तिम अवस्था में वे अपने पति युधिष्ठिर तथा अन्यों के साथ स्वर्गारोहण के लिए गईं तथा मार्ग पर गिर गईं। युधिष्ठिर ने उनके गिरने का कारण बताया, किन्तु जब युधिष्ठिर स्वर्ग पहुँचे तो उन्होंने देखा कि लक्ष्मीदेवी के रूप में द्रौपदी वहाँ पहले से विद्यमान थीं।

सुभद्रा—वसुदेव की पुत्री तथा भगवान् श्रीकृष्ण की बहिन। ये न केवल वसुदेव की लाड़ली पुत्री थीं, अपितु श्रीकृष्ण तथा बलदेव की भी अत्यन्त प्रिय बहिन थीं। ये दोनों भाई तथा बहन, पुरी के सुप्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर में मूर्तिमान हैं और आज भी नित्य हजारों तीर्थयात्री इस मन्दिर में दर्शन करते हैं। यह मन्दिर सूर्यग्रहण के अवसर पर भगवान् की कुरुक्षेत्र यात्रा तथा बाद में वृन्दावनवासियों से मिलने का स्मृति-स्वरूप है। इस अवसर पर राधा तथा कृष्ण का मिलन अत्यन्त कारुणिक है और पुरी में, भगवान् श्री चैतन्य राधारानी के भाव में, सदैव भगवान् श्रीकृष्ण के लिए लालायित रहते थे। जब अर्जुन द्वारका में थे, तो उन्होंने सुभद्रा को अपनी रानी बनाना चाहा और भगवान् श्रीकृष्ण से अपनी इच्छा व्यक्त की। श्रीकृष्ण जानते थे कि उनके बड़े भाई, बलदेव, सुभद्रा का विवाह अन्यत्र तय कर रहे हैं। चूँकि श्रीकृष्ण बलदेव द्वारा की जा रही व्यवस्था के विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर सकते थे, अतएव उन्होंने अर्जुन को सलाह दी कि वह उसका हरण कर ले। अतएव जब सारे लोग रैवत पर्वत पर आनन्द मनाने गये थे, तो अर्जुन ने कृष्ण की योजना के अनुसार, सुभद्रा का हरण कर लिया। इस पर बलदेव अर्जुन पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए और वे उन्हें मार डालना चाहते थे, किन्तु कृष्ण ने बड़े भाई से अनुनय-विनय की कि वे अर्जुन को क्षमा-दान दें। तब अर्जुन के साथ सुभद्रा का विधिवत् ब्याह हुआ और सुभद्रा से अभिमन्यु का जन्म हुआ। अभिमन्यु की अकाल मृत्यु से सुभद्रा अत्यन्त दुखी थीं, किन्तु परीक्षित के जन्म से वे सुखी तथा संतुष्ट हुई।

 
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