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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  1.13.31 
अजातशत्रु: कृतमैत्रो हुताग्नि-
र्विप्रान्नत्वा तिलगोभूमिरुक्‍मै: ।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
न चापश्यत्पितरौ सौबलीं च ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
अजात—जो कभी जन्मा नहीं; शत्रु:—शत्रु; कृत—किया गया; मैत्र:—देवताओं की पूजा करना; हुत-अग्नि:—अग्रि में; विप्रान्—ब्राह्मणों को; नत्वा—नमस्कार करके; तिल-गो-भूमि-रुक्मै:—अन्न, गौवों, भूमि तथा स्वर्ण के साथ; गृहम्—महल के भीतर; प्रविष्ट:—प्रवेश करके; गुरु-वन्दनाय—गुरुजनों को नमस्कार करने के लिये; —नहीं; —भी; अपश्यत्—देखा; पितरौ—अपने चाचाओं को; सौबलीम्—गांधारी को; —भी ।.
 
अनुवाद
 
 अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर ने वन्दना करके, सूर्यदेव को अग्नि-यज्ञ अर्पित करके तथा ब्राह्मणों को नमस्कार करके एवं उन्हें अन्न, गाय, भूमि तथा स्वर्ण अर्पित करके, अपने नैत्यिक प्रात:कालीन कर्म किये। तत्पश्चात् वे गुरुजनों का अभिवादन करने के लिए राजमहल में प्रविष्ट हुए। किन्तु उन्हें न तो उनके ताऊ मिले, न ही राजा सुबल की पुत्री (गांधारी) अर्थात् ताई मिलीं।
 
तात्पर्य
 महाराज युधिष्ठिर अत्यन्त पवित्र राजा थे, क्योंकि वे स्वयं गृहस्थ के सारे नैत्यिक कर्म किया करते थे। गृहस्थों को प्रात:काल जल्दी जगना होता है और स्नान करने के बाद, उन्हें प्रार्थना से, अग्नि में आहुति से, ब्राह्मणों को भूमि, गौवें, अन्न, सोना, इत्यादि का दान देकर तथा गुरुजनों को सादर नमस्कार करके अर्चा-विग्रह को अभिवादन करना होता है। जो व्यक्ति, शास्त्रों द्वारा नियत आदेशों का पालन करने को तैयार नहीं होते, वे केवल किताबी ज्ञान से उत्तम व्यक्ति (नरोत्तम) नहीं बन सकते। आधुनिक गृहस्थों को विभिन्न प्रकार की जीवन-शैलियों की आदत हो गई है, जैसे कि देर से जगना और फिर बिना किसी प्रकार की उपरिवर्णित शुद्धि के बिस्तर में लेटे-लेटे चाय पीना। घर के बच्चे अपने माता-पिता को जो कुछ करते देखते हैं, उसी का अभ्यास करते हैं, अतएव सारी की सारी पीढ़ी का नर्क की ओर पतन होता है। जब तक वे साधु की संगति नहीं करते, तब तक उनसे किसी अच्छाई की आशा नहीं की जा सकती। भौतिकतावादी मनुष्य, धृतराष्ट्र की भाँति, विदुर जैसे साधु से शिक्षा ग्रहण कर सकता है और इस प्रकार आधुनिक जीवन के दुष्प्रभावों से शुद्ध हो सकता है। लेकिन महाराज युधिष्ठिर को राजमहल में, राजा सुबल की पुत्री गांधारी समेत, उनके चाचा-ताऊ- धृतराष्ट्र तथा विदुर—नहीं मिले। वे उन्हें मिलने को आतुर थे, अतएव उन्होंने धृतराष्ट्र के निजी सचिव सञ्जय से पूछा।
 
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