मेरे शुभचिन्तक चाचा विदुर तथा अपने सभी पुत्रों के निधन से अत्यन्त शोकाकुल माता गांधारी कहाँ हैं? मेरे ताऊ धृतराष्ट्र भी अपने समस्त पुत्रों तथा पौत्रों की मृत्यु के कारण शोकार्त थे। निस्सन्देह, मैं अत्यन्त कृतघ्न हूँ। अतएव, क्या वे मेरे अपराधों को अत्यन्त गम्भीर मानकर अपनी पत्नी-सहित गंगा में कूद पड़े?
तात्पर्य
पाण्डवों ने और विशेष रूप से महाराज युधिष्ठिर तथा अर्जुन ने, कुरुक्षेत्र युद्ध के परवर्ती प्रभावों की पूर्ण कल्पना कर ली थी, अतएव अर्जुन ने युद्ध करने से इनकार कर दिया था। यह युद्ध भगवान् की इच्छा से हुआ, लेकिन पारिवारिक शोक के प्रभाव उसी तरह सत्य उतरे, जैसा उन्होंने पहले से सोच रखा था। महाराज युधिष्ठिर अपने ताऊ धृतराष्ट्र तथा ताई गांधारी की दुर्दशा के प्रति सदैव सचेत थे। अतएव उनकी वृद्धावस्था में तथा दुखी अवस्थाओं में, वे उनकी यथा-सम्भव देखभाल करते रहते थे। अतएव जब उन्हें राजमहल में अपने ताऊ तथा ताई नहीं मिले, तो स्वाभाविक था कि उन्हें सन्देह हुआ और उन्होंने सोचा कि वे गंगा की धारा में डूब गये। उन्होंने अपने आपको कृतघ्न माना, क्योंकि जब सारे पाण्डव पितृ-विहीन थे, तब महाराज धृतराष्ट्र ने रहने के लिए उन्हें सारी राजसी सुविधाएँ प्रदान की थीं, किन्तु एक वे हैं कि बदले में उन्होंने धृतराष्ट्र के सारे पुत्रों को कुरुक्षेत्र के युद्ध में मार डाला। पुण्यात्मा के रूप में, महाराज युधिष्ठिर ने अपने सारे अपरिहार्य दुष्कर्मों पर विचार किया, किन्तु उन्होंने कभी भी अपने ताऊ तथा उनके दल के दुष्कर्मों के विषय में नहीं सोचा। धृतराष्ट्र भगवान् की इच्छा से ही अपने दुष्कर्मों के फल भोग चुके थे, लेकिन महाराज युधिष्ठिर अपने अपरिहार्य दुष्कर्मों के ही विषय में सोच रहे थे। एक श्रेष्ठ मनुष्य तथा भगवद्भक्त का ऐसा ही स्वभाव होता है। एक भक्त कभी भी दूसरों में दोष नहीं निकालता, अपितु अपने ही दोषों को खोजने का प्रयास करता है और जहाँ तक सम्भव होता है, उन्हें सुधारने का प्रयास करता है।
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