श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  1.13.35 
सूत उवाच
कृपया स्नेडहवैक्लव्यात्सूतो विरहकर्शित: ।
आत्मेश्वरमचक्षाणो न प्रत्याहातिपीडित: ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; कृपया—करुणा से; स्नेह-वैक्लव्यात्—अत्यधिक स्नेह के कारण मानसिक असंतुलन से; सूत:—सञ्जय; विरह-कर्शित:—वियोग से दुखी; आत्म-ईश्वरम्—अपने स्वामी को; अचक्षाण:—न देखने से; न—नहीं; प्रत्याह—उत्तर दिया; अति-पीडित:—अत्यधिक दुखी होकर ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा : करुणा तथा मानसिक क्षोभ के कारण, संजय अपने स्वामी धृतराष्ट्र को न देखने से अत्यन्त दुखी थे, अतएव वे महाराज युधिष्ठिर को ठीक से उत्तर नहीं दे सके।
 
तात्पर्य
 सञ्जय दीर्घकाल तक महाराज धृतराष्ट्र के निजी सहायक रहे, अतएव उन्हें धृतराष्ट्र के जीवन का अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ था। अत: जब उन्होंने देखा कि उनकी जानकारी के बिना धृतराष्ट्र घर से चले गये, तो उनके शोक का ठिकाना नहीं रहा। वे धृतराष्ट्र के प्रति अत्यन्त करुणामय थे, क्योंकि कुरुक्षेत्र युद्धरूपी जुए में, वे सर्वस्व, सारे पुरुष तथा धन, हार चुके थे और अन्त में राजा तथा रानी को हताशा में घर छोड़ देना पड़ा। उन्होंने इस परिस्थिति का अध्ययन अपने ढंग से किया, क्योंकि उन्हें यह ज्ञात न था कि विदुर द्वारा धृतराष्ट्र की अन्तर्दृष्टि जगाई जा चुकी है और वे गृह रूपी अंधे कुएँ से निकल कर श्रेष्ठतर जीवन बिताने के लिए घर छोड़ गए हैं। जब तक किसी को इस जीवन के त्याग के पश्चात् श्रेष्ठतर जीवन की आशा नहीं होती, तब तक वह केवल कृत्रिम वेश में, अथवा घर से बाहर रह कर संन्यासी-जीवन में चिपका नहीं रह सकता।
 
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