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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  1.13.38 
अथाजगाम भगवान् नारद: सहतुम्बुरु: ।
प्रत्युत्थायाभिवाद्याह सानुजोऽभ्यर्चयन्मुनिम् ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; आजगाम—आ पहुँचे; भगवान्—दैवी पुरुष; नारद:—नारद; सह-तुम्बुरु:—अपने तंबूरे के साथ; प्रत्युत्थाय—अपने-अपने आसनों से उठकर; अभिवाद्य—प्रणाम करके; आह—कहा; स-अनुज:—अपने छोटे भाइयों समेत; अभ्यर्चयन्—अच्छे मन से स्वागत करते हुए; मुनिम्—मुनि से ।.
 
अनुवाद
 
 जब संजय इस प्रकार बोल रहे थे, तो शक्तिसम्पन्न दैवी पुरुष श्रीनारद अपना तंबूरा लिए हुए वहाँ प्रकट हुए। महाराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों समेत, अपने-अपने आसन से उठकर प्रणाम करते हुए उनका विधिवत् स्वागत किया।
 
तात्पर्य
 देवर्षि नारद को यहाँ पर भगवान् कहा गया है, क्योंकि वे भगवान् के परम विश्वसनीय भक्त हैं। जो लोग भगवान् की प्रेमाभक्ति में लगे रहते हैं, उन्हें भगवान् तथा उनके अत्यन्त विश्वास-पात्र भक्तों को एक ही जैसा माना जाता है। भगवान् को ऐसे विश्वास-पात्र भक्त अत्यन्त प्रिय हैं, क्योंकि वे भगवान् के यश का गुणगान करने के लिए अपनी विभिन्न क्षमता के अनुसार सर्वत्र विचरण करते रहते हैं और अभक्तों को भक्त बनाने के लिए प्रयास करते रहते हैं, जिससे उन्हें सचेतन स्तर पर लाया जा सके। वास्तव में कोई भी जीव अपनी वैधानिक स्थिति के कारण अभक्त नहीं हो सकता, किन्तु जब कोई अभक्त या नास्तिक बन जाता है, तो यह समझना चाहिए कि वह व्यक्ति अपने जीवन की समुचित अवस्था में नहीं है। भगवान् के विश्वासपात्र भक्त ऐसे मोहग्रस्त जीवों का उपचार करते हैं, अतएव वे भगवान् की नजरों में प्रिय माने जाते हैं। भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं कि जो नास्तिकों तथा अभक्तों को भक्त बनाने के लिए भगवान् की महिमा का प्रचार करते हैं, उनसे अधिक प्रिय उन्हें अन्य कोई नहीं है। नारद जैसे महापुरुषों को उसी प्रकार का समुचित सम्मान मिलना चाहिए, जिस प्रकार साक्षात् भगवान् को मिलता है। महाराज युधिष्ठिर अपने सुयोग्य भाइयों समेत नारद जैसे शुद्ध भगवद्भक्त का सम्मान करना अन्यों के लिए अनुकरणीय हैं, जिनके लिए अपनी वीणा लिए हुए भगवान् का गुणगान करने के अतिरिक्त और कोई कार्य नहीं है।
 
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