श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  1.13.40 
कर्णधार इवापारे भगवान् पारदर्शक: ।
अथाबभाषे भगवान् नारदो मुनिसत्तम: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
कर्ण-धार:—जहाज के कप्तान; इव—सदृश; अपारे—विस्तृत सागर में; भगवान्—भगवान् के प्रतिनिधि; पार-दर्शक:—दूसरी ओर ले जानेवाले; अथ—इस प्रकार; आबभाषे—कहने लगे; भगवान्—देव पुरुष; नारद:—ऋषि नारद; मुनि-सत्-तम:— भक्त-चिन्तकों में सर्वश्रेष्ठ ।.
 
अनुवाद
 
 आप इस अपार समुद्र में जहाज के कप्तान सदृश हैं और आप ही हमें अपने गन्तव्य का मार्ग दिखा सकते हैं। इस प्रकार से सम्बोधित किये जाने पर, देव-पुरुष, भक्तों में सर्वश्रेष्ठ चिन्तक देवर्षि नारद कहने लगे।
 
तात्पर्य
 दार्शनिक चिन्तक कई प्रकार के होते हैं, किन्तु इनमें सबसे बड़े वे हैं, जिन्होंने भगवान् का दर्शन पा लिया है और भगवान् की प्रेमामयी दिव्य सेवा में अपने को समर्पित कर दिया है। भगवान् के ऐसे समस्त शुद्ध भक्तों में देवर्षि नारद प्रमुख हैं, अतएव यहाँ पर उन्हें सभी दार्शनिक भक्तों में सबसे बड़ा बताया गया है। जब तक कोई प्रामाणिक गुरु से वेदान्त-दर्शन का श्रवण करके विद्वान दार्शनिक नहीं बन लेता, तब तक वह विद्वान दार्शनिक भक्त नहीं हो सकता। उसे अत्यन्त श्रद्धालु, विद्वान तथा विरक्त होना चाहिए, अन्यथा वह शुद्ध भक्त नहीं बन सकता। भगवान् का शुद्ध भक्त ही हमें अज्ञान सागर की दूसरी ओर जाने का मार्गदर्शन कर सकता है। देवर्षि नारद महाराज युधिष्ठिर के महल में आया करते थे, क्योंकि सारे पाण्डव भगवान् के शुद्ध भक्त थे और देवर्षि नारद आवश्यकता पडऩे पर उन्हें अच्छी सलाह देने के लिए सदैव तैयार रहते थे।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥