श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  1.13.42 
यथा गावो नसि प्रोतास्तन्त्यां बद्धाश्च दामभि: ।
वाक्तन्त्यां नामभिर्बद्धा वहन्ति बलिमीशितु: ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; गाव:—बैल; नसि—नाक से; प्रोता:—नाथी हुई; तन्त्याम्—डोरी से; बद्धा:—बँधी हुई; च—भी; दामभि:—रस्सियों से; वाक्-तन्त्याम्—वैदिक स्तोत्रों के जाल में; नामभि:—नाम पद्धति से; बद्धा:—बद्ध; वहन्ति—पालन करते हैं; बलिम्—आदेशों को; ईशितु:—परमेश्वर द्वारा नियंत्रित होने के लिए ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार बैल एक लम्बी रस्सी से नाक से नत्थी होकर बंधन में रहता है, उसी तरह मनुष्य जाति विभिन्न वैदिक आदेशों से बँध कर परमेश्वर के आदेशों का पालन करने के लिए बद्ध है।
 
तात्पर्य
 प्रत्येक जीव, चाहे वह मनुष्य हो या पशु या पक्षी, यही सोचता है कि वह स्वतंत्र है, किन्तु वास्तव में भगवान् के कठोर नियमों से कोई भी स्वतंत्र नहीं है। भगवान् के नियम कठोर हैं, क्योंकि किसी भी परिस्थिति में उनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। धूर्त लोग मनुष्य-निर्मित नियमों से बच सकते हैं, किन्तु, परम विधि-नियन्ता की संहिता में, नियमों के उल्लंघन की तनिक भी सम्भावना नहीं होती। ईश्वर-निर्मित नियम में थोड़ा-सा भी परिवर्तन करनेवाले नियम-भंजक को काफी कष्ट उठाने पड़ सकते हैं। परमेश्वर के ऐसे नियम विभिन्न अवस्थाओं में धर्म-संहिता कहलाते हैं, किन्तु धर्म का सिद्धान्त सर्वत्र एक सा होता है, यह है, परमेश्वर के आदेशों का पालन करना। ऐसी है भौतिक जगत की दशा। सभी जीवों ने इस भौतिक संसार में अपनी रुचि से बद्ध जीवन का खतरा मोल ले रखा है और इस तरह वे प्रकृति के नियमों द्वारा जकड़े हुए हैं। इस बंधन से छूटने की एकमात्र विधि यह है कि परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया जाय। लेकिन, माया के चंगुल से मुक्त होने के बजाय मूर्ख लोग विभिन्न पद-नामों से और अधिक बँध जाते हैं और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, हिन्दू, मुसलमान, भारतीय, यूरोपीय, अमरीकी, चीनी इत्यादि कहलाते हैं और इस तरह वे अपने-अपने शास्त्रों या विधानों के प्रभाव में परमेश्वर के आदेशों का पालन करते हैं। राज्य के संवैधानिक नियम धार्मिक संहिता के अपूर्ण प्रतिरूप हैं। धर्मनिरपेक्ष राज्य या ईश्वर-विहीन राज्य नागरिकों को ईश्वरीय नियमों को तोडऩे की छूट देते हैं, किन्तु राज्य के नियमों का उल्लंघन करने से रोकते हैं; फल यह होता है कि मनुष्य-निर्मित अपूर्ण नियमों का पालन करने की अपेक्षा ईश्वर के नियमों को तोडऩे के कारण जनसामान्य को अधिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक जगत के विधान की परिस्थिति के अन्तर्गत अपूर्ण है और इसकी तनिक भी सम्भावना नहीं है कि भौतिकता में सर्वाधिक उन्नत व्यक्ति भी पूर्ण विधान का पालन कर सके। दूसरी ओर ईश्वर के नियम हैं, जिनमें ऐसी अपूर्णता नहीं है। यदि नेताओं को भगवान् के नियमों की शिक्षा दी जाय, तो उद्देश्यहीन व्यक्तियों की कामचलाऊ विधान सभा बनाने की कोई आवश्यकता ही न रहे। मानव-निर्मित कामचलाऊ नियमों में परिवर्तन की आवश्यकता तो रहती है, लेकिन ईश्वर-निर्मित नियमों में नहीं, क्योंकि वे परम पूर्ण भगवान् द्वारा पूर्ण बनाये गये हैं। धर्म-संहिताएँ या शास्त्रीय आदेश, जीव की विभिन्न दशाओं को देखते हुए, ईश्वर के मुक्त प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये हैं और सारे जीव, भगवान् के आदेशों का पालन करके, संसार-बंधन से मुक्त हो जाते हैं। किन्तु जीव की वास्तविक स्थिति तो परमेश्वर के सनातन सेवक की है। अपनी मुक्त अवस्था में वह दिव्य प्रेम से भगवान् की सेवा करता है और पूर्ण स्वतंत्रता का जीवन बिताता है—कभी-कभी भगवान् के समान स्तर पर, तो कभी-कभी उनसे भी बढक़र। लेकिन इस बद्ध भौतिक जगत में प्रत्येक जीव अन्य जीवों के ऊपर प्रभुता जमाना चाहता है। इस तरह माया के भ्रम से यह प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति बद्ध भौतिक जीवन के आगे-आगे बढ़ते रहने का कारण बनती है। अतएव जब तक जीव सनातन सेवक भाव की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करके भगवान् की शरण ग्रहण नहीं करता, तब तक वह इस भौतिक जगत से अधिकाधिक बद्ध होता जाता है। यही भगवद्गीता तथा संसार के अन्य सभी मान्य शास्त्रों का अन्तिम उपदेश है।
 
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