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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  1.13.43 
यथा क्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह ।
इच्छया क्रीडितु: स्यातां तथैवेशेच्छया नृणाम् ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; क्रीड-उपस्कराणाम्—खेल की वस्तुएँ; संयोग—मिलना; विगमौ—बिछुडऩा; इह—इस संसार में; इच्छया—इच्छा से; क्रीडितु:—खेल करने के लिए; स्याताम्—घटित होता है; तथा—उसी तरह; एव—निश्चय ही; ईश— परमेश्वर की; इच्छया—इच्छा से; नृणाम्—मनुष्यों की ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार खिलाड़ी अपनी इच्छानुसार खिलौनों को सजाता तथा बिगाड़ता है, उसी तरह भगवान् की परम इच्छा मनुष्यों को पास-पास लाती है और उन्हें विलग भी करती है।
 
तात्पर्य
 हमें यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि हम जिस पद पर अभी हैं, वह हमारे अपने ही विगत कर्मों के अनुसार, परम इच्छा द्वारा नियोजित है। परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित हैं, जैसा किभगवद्गीता (१३.२३) में बताया गया है। अतएव वे हमारे जीवन की प्रत्येक अवस्था की गतिविधियों को जानते रहते हैं। वे हमें किसी विशेष पद पर बिठाकर, हमारे कर्मों का फल प्रदान करते हैं। धनी मनुष्य का बच्चा सम्पन्नता के बीच जन्म लेता है; किन्तु धनी मनुष्य के पुत्र के रूप में आने वाला बच्चा इस स्थान के योग्य था; अत: यह स्थान उसे ईश्वर की इच्छा से मिलता है। यदि उस बच्चे को किसी क्षण किसी दूसरे स्थान में ले जाया जाता है, तो वह भी परमेश्वर की इच्छा से होता है, भले ही बच्चा या पिता ऐसे सुखद सम्बन्ध से वियोग पसन्द न करें। यही बात निर्धन व्यक्ति पर भी लागू होती है। जीवों के मिलने या बिछुडऩे पर धनी या निर्धन कोई भी व्यक्तियों का कोई वश नहीं चलता। खिलाड़ी तथा उसके खिलौने के उदाहरण से किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए। कोई यह तर्क कर सकता है कि जब भगवान् हमें हमारे कर्मों का ही फल देने के लिए बाध्य हैं, तो खिलाड़ी का उदाहरण यहाँ पर उपयुक्त नहीं बैठता। लेकिन ऐसा नहीं है। हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि भगवान् की ही इच्छा परम है और वे किसी नियम से बँधे नहीं हैं। सामान्यतया कर्म का नियम यह है कि लोगों को उन्हीं के कर्मों का फल मिलता है, लेकिन विशेष मामलों में भगवान् की इच्छा से ऐसे कर्म-फल बदल भी जाते हैं। लेकिन यह बदलाप भगवान् की इच्छा से ही आ सकता है, अन्य किसी से नहीं। अतएव इस श्लोक में दिया गया खिलाड़ी का उदाहरण सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि भगवान् जो कुछ चाहते हैं, उसे करने के लिए परम स्वतंत्र हैं और चूँकि वे सभी प्रकार से पूर्ण हैं, अतएव उनके कर्मों या फलों में कोई त्रुटि नहीं रहती। जब किसी शुद्ध भक्त का मामला आता है, तब कर्म-फलों में ये परिवर्तन विशेष रूप से परमेश्वर द्वारा किये जाते हैं। भगवद्गीता (९.३०-३१) में आश्वासन दिया गया है कि भगवान् अपने उस शुद्ध भक्त को सारे पाप फलों से बचाते हैं, जिसने उनकी शरण ग्रहण कर ली है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। विश्व के इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं, जहाँ भगवान् द्वारा कर्म-फल बदले गये हैं। यदि भगवान् किसी के विगत कर्मों के फलों को परिवर्तित कर सकते हैं, तो यह निश्चित है कि वे अपने ही कर्मों से या कर्मों के फलों से बँधे नहीं रहते। वे पूर्ण हैं और सारे नियमों के परे होते हैं।
 
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