श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  1.13.46 
कालकर्मगुणाधीनो देहोऽयं पाञ्चभौतिक: ।
कथमन्यांस्तु गोपायेत्सर्पग्रस्तो यथा परम् ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
काल—शाश्वत समय; कर्म—कर्म; गुण—प्रकृति के गुण; अधीन:—के अधीन; देह:—भौतिक शरीर तथा मन; अयम्—यह; पाञ्च-भौतिक:—पाँच तत्त्वों से बना; कथम्—कैसे; अन्यान्—दूसरे; तु—लेकिन; गोपायेत्—सुरक्षा प्रदान करते हैं; सर्प- ग्रस्त:—साँप द्वारा दंशित; यथा—जिस तरह; परम्—दूसरे ।.
 
अनुवाद
 
 पाँच तत्त्वों से निर्मित यह स्थूल भौतिक शरीर पहले से ही सनातन काल, कर्म तथा भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन है। तो किस तरह से यह अन्यों की रक्षा कर सकता है, जबकि यह स्वयं सर्प के मुँह में फँसा हुआ है?
 
तात्पर्य
 राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रचार द्वारा विश्व आन्दोलनों से किसी को कोई लाभ होनेवाला नहीं, क्योंकि ये श्रेष्ठ शक्ति द्वारा नियंत्रित होते हैं। बद्धजीव पूरी तरह से भौतिक प्रकृति के नियंत्रण में होता है, जो प्रकृति के तीन गुणों के प्रभाववश होने वाले कर्म तथा सनातन काल के रूप में व्यक्त होता है। प्रकृति के तीन गुण हैं अर्थात् सत, रज तथा तम। सतोगुणी हुए बिना, मनुष्य वस्तुओं को असली रूप में नहीं देख पाता। रजो तथा तमोगुणी व्यक्ति वस्तुओं को उनके असली रूप में कभी नहीं देख पाता। अतएव रजोगुणी तथा तमोगुणी व्यक्ति अपने कार्यों को सही दिशा नहीं दे पाते, केवल सतोगुणी व्यक्ति ही कुछ हद तक ऐसा कर पाता है। चूँकि अधिकांश व्यक्ति राजसी तथा तामसी होते हैं, अतएव उनकी योजनाएँ तथा परियोजनाएँ शायद ही अन्यों को कुछ लाभ पहुँचा सकें। प्रकृति के गुणों के भी ऊपर शाश्वत समय होता है, जो काल कहलाता है, क्योंकि यह भौतिक जगत की हर वस्तु की आकृति को बदल देता है। यदि हम अस्थायी रूप से कोई लाभ-प्रद कार्य कर भी लें, तो समय बीतने पर काल द्वारा यह अच्छी परियोजना भी विनष्ट कर दी जाती है। यदि कुछ किया जा सकता है, तो इतना ही कि इस सनातन काल से छुटकारा पा लिया जाय, जिसकी तुलना काल-सर्प से की गई है, जिसका दंश सदैव जानलेवा होता है। कोई भी व्यक्ति सर्प-दंश से नहीं बच पाता। अतएव काल-सर्प अथवा प्रकृति के गुणों के चंगुल से बचने का सर्वश्रेष्ठ उपाय भक्तियोग है, जिसकी संस्तुति भगवद्गीता (१४.२६) में की गई है। सबसे पूर्ण लोकोपयोगी परियोजना यह है कि हर व्यक्ति को, विश्व भर में, भक्तियोग के प्रचार कार्य में लगाया जाय, क्योंकि उसी के द्वारा लोगों को काल, कर्म तथा गुण द्वारा व्यक्त माया के चंगुल से बचाया जा सकता है। भगवद्गीता (१४.२६) से इसकी स्पष्ट रूप से पुष्टि होती है।
 
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