श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 47
 
 
श्लोक  1.13.47 
अहस्तानि सहस्तानामपदानि चतुष्पदाम् ।
फल्गूनि तत्र महतां जीवो जीवस्य जीवनम् ॥ ४७ ॥
 
शब्दार्थ
अहस्तानि—हाथविहीनों के; स-हस्तानाम्—हाथ वालों के; अपदानि—पैर-विहीनों का; चतु:-पदाम्—चार पैर वालों का; फल्गूनि—निर्बल; तत्र—वहाँ; महताम्—शक्तिमानों को; जीव:—जीव; जीवस्य—जीव का; जीवनम्—जीवन निर्वाह, गुजारा ।.
 
अनुवाद
 
 जो बिना हाथ वाले हैं, वे हाथ वालों के शिकार हैं। जो पाँवों से विहीन हैं, वे चौपायों के शिकार हैं। निर्बल सबल के भोज्य हैं और सामान्य नियम यह है कि एक जीव दूसरे जीव का भोजन बना हुआ है।
 
तात्पर्य
 अस्तित्व टिकाए रखने के लिए जीवन-संघर्ष का नियम भगवान् की परम इच्छा से है और कितनी भी योजनाओं के द्वारा किसी के भी लिए इससे छुटकारा नहीं मिल सकता। जो जीव इस संसार में परम पुरुष की इच्छा के विपरीत आये हैं, वे माया-शक्ति नामक उच्चतर शक्ति के अधीन रहते हैं, जो भगवान् द्वारा नियुक्त होती है। यह दैवी माया बद्धजीवों को तीन प्रकार के तापों से सताती रहती है, जिनमें से एक की व्याख्या इस श्लोक में हुई है—निर्बल सबल का आहार है। कोई भी, अपने से अधिक सबल के हमले से अपनी रक्षा नहीं कर सकता और भगवान् की इच्छा से निर्बल, सबल तथा सर्वाधिक सबल—ये तीन कोटियाँ बनी हुई हैं। यदि बाघ निर्बल पशु को, जिसमें मनुष्य भी सम्मिलित है, खा जाता है, तो इसमें शोक करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि यह तो परमेश्वर का नियम है। यद्यपि नियम यह कहता है कि मनुष्य को किसी अन्य के जीवन पर जीवन-निर्वाह करना होता है, लेकिन सद्भाव का भी नियम है, क्योंकि मनुष्य को शास्त्रों के नियमों का पालन करना होता है। अन्य जीवधारियों द्वारा ऐसा करना सम्भव नहीं होता। मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के लिये आया है, इसलिये उसे भगवान् को अर्पित किये बिना कोई भी वस्तु नहीं खानी है। भगवान् अपने भक्तों से शाक, फल, पत्ती तथा अन्न के बने विविध व्यंजन स्वीकार करते हैं। अतएव फल, पत्ती तथा दूध के विविध पकवान भगवान् को अर्पित किये जा सकते हैं और जब भगवान् इन्हें पा लें, तो भक्त इस प्रसाद को ग्रहण कर सकता है, जिससे जीवन-संघर्ष के सारे क्लेश क्रमश: दूर हो जायेंगे। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (९.२६) में हुई है। जो लोग पशुओं का भक्षण करने के आदी हो गये हैं, वे भी सीधे भगवान् को भोज्य-पदार्थ न अर्पित कर, धार्मिक अनुष्ठानों की कतिपय दशाओं में, भगवान् के किसी दूत को अर्पित कर सकते हैं। शास्त्रों का आदेश मांस-भक्षकों को प्रोत्साहित करना नहीं, अपितु नियमों के द्वारा उन पर प्रतिबन्ध लगाना है।

जीव अपने से अधिक सबल अन्य जीव का भक्ष्य होता है। किसी को किसी भी परिस्थिति में अपने जीवन-निर्वाह के लिए चिन्तित नहीं होना चाहिए, क्योंकि सर्वत्र ही जीव हैं और कहीं पर भोजन के अभाव में एक भी जीव भूखों नहीं मरता। महाराज युधिष्ठिर को नारद जी उपदेश देते हैं कि भोजन के अभाव में अपने चाचाओं के कष्ट भोगने की चिन्ता न करें, क्योंकि वे जंगलों में उपलब्ध शाकों को भगवान् के प्रसाद के रूप में प्राप्त करके जीवित रह सकते हैं और इस तरह मोक्ष-मार्ग प्राप्त कर सकते हैं।

सबल द्वारा दुर्बल का शोषण प्राकृतिक अस्तित्व का नियम है; जीवों के विभिन्न साम्राज्यों में, निर्बल को निगल जाने का सदैव प्रयास होता रहता है। भौतिक परिस्थितियों में, किसी कृत्रिम साधन से इस प्रवृत्ति को रोके जाने की कोई सम्भावना नहीं है। इसे मनुष्य के आध्यात्मिक भाव को, आध्यात्मिक नियमों के अभ्यास द्वारा जगाकर ही रोका जा सकता है। किन्तु आध्यात्मिक विधि-विधान एक ओर मनुष्य को निर्बल पशुओं का वध करने तथा दूसरी ओर शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की शिक्षा नहीं देता। यदि मनुष्य पशुओं को शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की अनुमति नहीं देता, तो फिर वह किस तरह मानव समाज में शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की उम्मीद कर सकता है? अतएव अन्धे नेताओं को चाहिए कि वे परम पुरुष को जानें और तब ईश्वर की राजसत्ता को लागू करने का प्रयास करें। विश्व के जन-समुदाय के मन में ईश्वर-चेतना को जगाये बिना ईश्वर राज्य या राम-राज्य असम्भव है।

 
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