सोऽयमद्य महाराज भगवान् भूतभावन: ।
कालरूपोऽवतीर्णोऽस्यामभावाय सुरद्विषाम् ॥ ४९ ॥
शब्दार्थ
स:—वे परमेश्वर; अयम्—भगवान् श्रीकृष्ण; अद्य—इस समय; महाराज—हे राजा; भगवान्—भगवान्; भूत-भावन:—प्रत्येक सृजित वस्तु के स्रष्टा या पिता; काल-रूप:—सर्वभक्षी काल के वेश में; अवतीर्ण:—अवतरित; अस्याम्—विश्व पर; अभावाय—निकाल फेंकने के लिए; सुर-द्विषाम्—जो लोग भगवान् की इच्छा के विरुद्ध हैं, उन्हें ।.
अनुवाद
वे ही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण, सर्वभक्षी काल के वेश (कालरूप) में, अब संसार से द्वेषी लोगों का सर्वनाश करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।
तात्पर्य
मनुष्य की दो श्रेणियाँ हैं—द्वेषी तथा आज्ञा-पालक। चूँकि परमेश्वर एक हैं और वे सभी जीवों के पिता हैं, अतएव द्वेषी लोग भी उन्हीं की सन्तान हैं, लेकिन वे असुर कहलाते हैं। किन्तु जो जीव सर्वोपरि पिता के प्रति आज्ञाकारी है, वे देवता कहलाते हैं, क्योंकि वे जीवन की भौतिक अवधारणा द्वारा कलुषित नहीं होते हैं। असुर लोग न केवल भगवान् के अस्तित्व को नकार करके द्वेष दिखाते हैं, अपितु वे अन्य समस्त जीवों से भी द्वेष रखते हैं। जगत में असुरों के प्राधान्य को कभी- कभी भगवान् उनको पूरी तरह विनष्ट करके ठीक करते हैं और पाण्डव जैसे देवताओं का राज्य स्थापित करते हैं। छद्मरूप में काल नाम की उनकी उपाधि महत्त्वपूर्ण है। वे रंचमात्र भी भयावह नहीं हैं, अपितु वे शाश्वतता, ज्ञान तथा आनन्द के दिव्य रूप हैं। जो भक्त हैं, उनके सामने उनका वास्तविक रूप प्रकट होता है, किन्तु जो अभक्त हैं उनके लिए वे कालरूप में प्रकट होते हैं, जो उनका कारण-रूप है। भगवान् का यह कारण-रूप असुरों को तनिक भी सुहावना नहीं लगता, अतएव वे भगवान् को निराकार मान लेते हैं, जिससे उनकों (झूठी) सुरक्षा की भावना का अनुभव हो और वे ऐसा सोच सकें कि अब उन्हें भगवान् द्वारा नष्ट नहीं किया जाएगा।
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