विज्ञान—शुद्ध पहचान; आत्मनि—बुद्धि में; संयोज्य—ठीक से स्थिर करके; क्षेत्र-ज्ञे—जीव में; प्रविलाप्य—तादात्म्य करके; तम्—उसको; ब्रह्मणि—सर्वोपरि में; आत्मानम्—शुद्ध जीव; आधारे—आधार में; घट-अम्बरम्—घट के भीतर आकाश; इव—सदृश; अम्बरे—परम व्योम में ।.
अनुवाद
धृतराष्ट्र को अपनी शुद्ध सत्ता को बुद्धि में संयोजित करके, तब परम पुरुष के साथ, जीव के रूप में, गुणों के एकात्मकता के बोध सहित, परम ब्रह्म के साथ तदाकार होना होगा। घटाकाश से मुक्त होकर उन्हें आध्यात्मिक आकाश ऊपर तक उठना होगा।
तात्पर्य
जीव भौतिक जगत पर प्रभुता जताने तथा परमेश्वर के साथ सहयोग न करने की इच्छा से महत् तत्त्व से सम्पर्क करता है और इस महत् तत्त्व से भौतिक जगत, बुद्धि, मन तथा इन्द्रियों के साथ उसकी झूठी पहचान बनती है। इससे उसकी शुद्ध आध्यात्मिक पहचान ठक जाती है। योग-विधि से जब आत्म-साक्षात्कार में उसकी शुद्ध पहचान की अनुभूति हो जाती है, तो उसे पाँच स्थूल तत्त्वों तथा मन और बुद्धि नामक सूक्ष्म तत्त्वों को संयोजित करके मूल स्थिति में अर्थात् पुन: महत्-तत्त्व में लौटना होता है। इस प्रकार उसे महत्-तत्त्व के बन्धन से छूटकर परमात्मा में तदाकार होना होता है। दूसरे शब्दों में, उसे इसकी अनुभूति करनी होती है कि वह गुणात्मक रूप से परमात्मा से अभिन्न है। इस तरह से वह अपनी शुद्ध पहचान करके भौतिक आकाश को पार कर सकता है और इस प्रकार भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है। धृतराष्ट्र ने विदुर तथा भगवान् की कृपा से आध्यात्मिक पहचान की यह सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त कर ली। विदुर के व्यक्तिगत सम्पर्क से उन्हें भगवान् की कृपा प्राप्त हो सकी और जब वे विदुर के उपदेशों का वास्तव में पालन कर रहे थे, तब भगवान् ने सिद्ध अवस्था प्राप्त करने में उनकी सहायता दी।
भगवान् का शुद्ध भक्त न तो भौतिक आकाश के किसी ग्रह पर रहता है, न ही वह भौतिक तत्त्वों से किसी प्रकार के सम्पर्क का अनुभव करता है। भगवान् के उद्देश्य के समान ही उद्देश्य की आध्यात्मिक धारा से परिपूरित होने के कारण उसके तथाकथित भौतिक शरीर का अस्तित्व नहीं रहता और इस तरह वह महत् तत्त्व के सारे कल्मष से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। वह सदैव आध्यात्मिक आकाश में रहता है, जिसे वह अपनी भक्तिमय सेवा के प्रभाव से सात भौतिक आवरणों को भेदकर प्राप्त करता है। बद्धजीव इन आवरणों के भीतर रहते हैं, जबकि मुक्त जीव इनसे परे होते हैं।
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