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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 59
 
 
श्लोक  1.13.59 
विदुरस्तु तदाश्चर्यं निशाम्य कुरुनन्दन ।
हर्षशोकयुतस्तस्माद् गन्ता तीर्थनिषेवक: ॥ ५९ ॥
 
शब्दार्थ
विदुर:—विदुर भी; तु—लेकिन; तत्—वह घटना; आश्चर्यम्—आश्चर्यमय; निशाम्य—देखकर; कुरु-नन्दन—हे कुरुवंश के पुत्र; हर्ष—प्रसन्नता; शोक—दुख; युत:—से प्रभावित; तस्मात्—उस स्थान से; गन्ता—चले जाएँगे; तीर्थ—तीर्थ-स्थान; निषेवक:—शक्ति प्राप्त करने के लिए ।.
 
अनुवाद
 
 तब हर्ष तथा शोक से अभिभूत होकर, विदुर उस पवित्र तीर्थ-स्थान से चले जाएँगे।
 
तात्पर्य
 विदुर, मुक्त योगी के रूप में अपने भ्राता धृतराष्ट्र के आश्चर्यमय प्रयाण को देखकर चकित थे, क्योंकि वे अपने विगत जीवन में भौतिकतावाद अत्यधिक लिप्त थे। निस्सन्देह, विदुर के ही कारण, उनके भाई को जीवन की वांछित गति प्राप्त हुई। अतएव यह जानकर विदुर परम प्रसन्न थे। लेकिन उन्हें दुख था कि वे अपने भाई को शुद्ध भक्त न बना पाये। विदुर ऐसा न कर पाये, क्योंकि धृतराष्ट्र उन पाण्डवों से शत्रुभाव रखते थे, जो सारे भगवान् के भक्त थे। वैष्णव के चरणकमलों पर किया गया अपराध भगवान् के चरणकमलों पर किये गये अपराध से अधिक घातक होता है। निश्चय ही विदुर अपने भाई धृतराष्ट्र पर अत्यन्त कृपालु थे, जिनका पिछला जीवन अत्यन्त भौतिकवादी था, किन्तु ऐसी कृपा का वर्तमान जीवन में फल अन्तत: परमेश्वर की इच्छा पर निर्भर होता है। अतएव धृतराष्ट्र को केवल मुक्ति-लाभ हुआ। ऐसे अनेक मुक्त जीवनों के बाद ही भक्ति की अवस्था प्राप्त हो पाती है। विदुर अपने भाई तथा भाभी की मृत्यु से अत्यन्त शोकातुर थे और ऐसे शोक को दूर करने का एकमात्र उपाय था कि वे तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ें। अतएव महाराज युधिष्ठिर के पास अपने जीवित चाचा विदुर को वापस बुलाने का अवसर न था।
 
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