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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  1.13.7 
तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमासीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च श‍ृण्वताम् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको (विदुर को); भुक्तवन्तम्—ठीक से भोजन कराकर; विश्रान्तम्—तथा विश्राम कराके; आसीनम्—बैठाकर; सुखम् आसने—सुखद आसन पर; प्रश्रय-अवनत:—स्वाभाविक रूप से अत्यन्त भद्र तथा विनीत; राजा—राजा युधिष्ठिर ने; प्राह—बोलना प्रारम्भ किया; तेषाम् च—तथा उनके द्वारा; शृण्वताम्—सुना जाकर ।.
 
अनुवाद
 
 जब विदुर ठीक से भोजन कर चुके और पर्याप्त विश्राम कर लेने पर उन्हें सुखदायक आसन पर बिठाया गया। तब राजा ने उनसे बोलना शुरू किया और वहाँ पर उपस्थित सारे लोग सुनने लगे।
 
तात्पर्य
 राजा युधिष्ठिर अपने पारिवारिक सदस्य तक का स्वागत करने में पटु थे। सभी पारिवारिक सदस्यों ने विदुर का गले मिलते हुए तथा अभिवादन द्वारा सत्कार किया। तत्पश्चात् स्नान एवं समुचित भोजन की व्यवस्था की। फिर पर्याप्त विश्राम करने दिया गया। विश्राम के बाद उन्हें बैठने के लिए सुखद आसन प्रदान किया गया। तब राजा ने परिवार की तथा अन्य विषयों की बातें शुरू कीं। प्रिय मित्र या यहाँ तक कि शत्रु के भी स्वागत की यही उचित विधि है। भारतीय नीतिशास्त्र के अनुसार, घर आये शत्रु का भी इस तरह स्वागत होना चाहिए कि उसे भय की प्रतीति न हो। शत्रु सदैव अपने शत्रु से भयभीत रहता है, किन्तु जब शत्रु के घर कोई शत्रु आए, तो ऐसा नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि घर आये व्यक्ति का कुटुम्बी के समान सत्कार होना चाहिए; तो विदुर जैसे कुटुम्बी का कहना ही क्या, जो परिवार के सभी सदस्यों के शुभचिन्तक थे। इस प्रकार महाराज युधिष्ठिर अन्य सभी सदस्यों की उपस्थिति में विदुर से बोले।
 
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