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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 13: धृतराष्ट्र द्वारा गृह-त्याग  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  1.13.8 
युधिष्ठिर उवाच
अपि स्मरथ नो युष्मत्पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्गणाद्विषाग्‍न्‍यादेर्मोचिता यत्समातृका: ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
युधिष्ठिर: उवाच—महाराज युधिष्ठिर ने कहा; अपि—क्या; स्मरथ—आपको स्मरण है; न:—हमको; युष्मत्—आपसे; पक्ष— पक्षियों के पंखों सदृश हमारे प्रति पक्षपात; छाया—संरक्षण; समेधितान्—आपके द्वारा पाले गये हम सबों द्वारा; विपत्- गणात्—विभिन्न प्रकार की विपत्तियों से; विष—विष-रूप शासन द्वारा; अग्नि-आदे:—अग्नि-काण्ड आदि से; मोचिता:— छुटकारा दिलाया; यत्—आपने जो किया; —सहित; मातृका:—हमारी माता ।.
 
अनुवाद
 
 महाराज युधिष्ठिर ने कहा : हे चाचा, क्या आपको याद है कि आपने किस तरह सदा हमारी माता तथा हम सबकी समस्त प्रकार की विपत्तियों से रक्षा की है? आपके पक्षपात ने, पक्षियों के पंखों के समान, हमें विष-पान तथा अग्निदाह से बचाया है।
 
तात्पर्य
 अल्पायु में ही पाण्डु की मृत्यु हो जाने से उनके छोटे-छोटे पुत्र तथा विधवा स्त्री परिवार के ज्येष्ठ सदस्यों द्वारा, विशेष रूप से भीष्मदेव तथा महात्मा विदुर द्वारा, संरक्षण प्राप्त करते रहे। पाण्डवों की राजनीतिक स्थिति के कारण विदुर उनका थोड़ा-बहुत पक्षपात करते रहते थे। यद्यपि धृतराष्ट्र भी महाराज पाण्डु के छोटे-छोटे बालकों के प्रति समान रूप से सचेष्ट रहते थे, लेकिन वे उन षड्यंत्रकारी दलों में से एक थे, जो पाण्डु के वंशजों का नामोनिशान मिटा देना चाहते थे और उनके स्थान पर अपने पुत्रों को राज्य का शासक बनाना चाहते थे। महाराज विदुर धृतराष्ट्र तथा उनके दल के इस षड्यंत्र को समझते थे। अतएव अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र के आज्ञाकारी सेवक होते हुए भी उन्हें उनकी यह राजकीय महत्त्वाकांक्षा, जो अपने पुत्रों के निमित्त थी, पसन्द नहीं थी। अतएव वे पाण्डवों एवं उनकी विधवा माता की सुरक्षा के प्रति अत्यधिक सावधान रहते थे। इस प्रकार कह सकते है कि वे पाण्डवों के पक्षपाती थे और उन्हें धृतराष्ट्र के पुत्रों से अधिक चाहते थे, यद्यपि सामान्य दृष्टि से वे दोनों ही उन्हें प्रिय थे। वे अपने भतीजों के दोनों दलों के प्रति इस तरह समान-वत्सल थे, फिर भी अपने चचेरे भाइयों के प्रति षड्यंत्र करने की नीति के लिए वे दुर्योधन को सदैव प्रताडि़त करते रहते थे। वे अपने अग्रज की आलोचना अपने पुत्रों को बढ़ावा देने की नीति के लिए करते रहते, किन्तु साथ ही पाण्डवों को विशेष संरक्षण प्रदान करने के प्रति सदैव सतर्क रहते। राजमहल के भीतर विदुर के ये सारे कार्यकलाप उन्हें पाण्डवों का पक्षपाती घोषित करनेवाले थे। महाराज युधिष्ठिर ने विदुर के घर से दीर्घकालीन तीर्थाटन के लिए जाने के पूर्व के विगत इतिहास का उल्लेख किया है। महाराज युधिष्ठिर ने उन्हें याद दिलाई कि वे कुरुक्षेत्र-युद्ध जैसी घोर पारिवारिक दुर्घटना के बाद भी अपने बड़े हो चुके भतीजों के प्रति कितने दयालु तथा पक्षपाती बने रहे।

कुरुक्षेत्र-युद्ध के पूर्व, धृतराष्ट्र की नीति यह थी कि वह अपने भतीजों का सफाया शान्तिपूर्ण ढंग से कर दे, अतएव उसने पुरोचन को आज्ञा दी कि वह वारणावत में एक महल निर्मित करे और जब वह महल बन कर तैयार हो गया, तो धृतराष्ट्र ने इच्छा व्यक्त की कि उसके भाई का परिवार वहाँ कुछ काल तक रहे। जब सारे पाण्डव राजकुल के अन्य सदस्यों की उपस्थिति में वहाँ जा रहे थे, तो विदुर ने अत्यन्त चालाकी से पाण्डवों को धृतराष्ट्र की भावी योजना की जानकारी दी। इसका विशेष वर्णन महाभारत (आदिपर्व ११४) में हुआ है। उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें संकेत दिया—“ऐसा अस्त्र जो इस्पात या किसी अन्य धातु का न बना हो वह इतना तेज हो सकता है कि शत्रु का वध कर दे। किन्तु जो यह जानता है, वह कभी मारा नहीं जाता।” कहने का तात्पर्य यह था कि उन्होंने संकेत कर दिया कि पाण्डवों को वारणावत इसलिए भेजा जा रहा है कि उनका वध किया जा सके। इस तरह उन्होंने युधिष्ठिर को सचेत किया कि वे नये आवास-महल में अत्यन्त सतर्क रहें। उन्होंने अग्नि का भी संकेत किया और कहा कि अग्नि आत्मा का दहन नहीं कर सकती, लेकिन भौतिक शरीर को विनष्ट कर सकती है। किन्तु जो आत्मा की रक्षा करता है, वह जीवित रह सकता है। महाराज युधिष्ठिर तथा विदुर के ऐसे वार्तालाप को कुन्ती नहीं समझ पाईं, अतएव जब उन्होंने अपने पुत्र से उस वार्तालाप का भावार्थ जानना चाहा, तो युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि विदुर की बातों से लग रहा है कि हम लोग जहाँ रहने जा रहे हैं, उस भवन में अग्नि लगने का संकेत है। बाद में, विदुर अपना वेश बदल कर पाण्डवों के पास पहुँचे और उन्हें सूचित किया कि शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को द्वारपाल महल में आग लगाएगा। यह धृतराष्ट्र का षड्यंत्र था कि पाण्डव अपनी माता समेत एकसाथ मर जाँए। उनके सचेत करने से, पाण्डव पृथ्वी के नीचे बनी सुरंग के द्वारा बच निकले, किन्तु उनके बचने का समाचार धृतराष्ट्र को ज्ञात न हो सका, यहाँ तक कि अग्नि लगने के बाद, सारे कौरव पाण्डवों की मृत्यु के प्रति इतने आश्वस्त थे कि धृतराष्ट्र ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उनके अन्तिम संस्कार भी सम्पन्न कर डाले तथा शोक की अवधि में महल के सारे सदस्य शोक-मग्न थे, किन्तु विदुर ने शोक नहीं मनाया, क्योंकि उन्हें पता था कि सारे पाण्डव कहीं पर जीवित हैं। विपत्तियों के ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं और उन सबों में विदुर ने एक ओर जहाँ पाण्डवों को संरक्षण प्रदान किया, तो दूसरी ओर, वे अपने भाई धृतराष्ट्र को ऐसी षड्यंत्रकारी नीतियों से रोकते रहे। इसलिए वे पाण्डवों के प्रति उसी तरह पक्षपात करते रहे, जिस प्रकार पक्षी अपने पंख से अंडों की रक्षा करता है।

 
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