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श्लोक 1.14.17  |
सूर्यं हतप्रभं पश्य ग्रहमर्दं मिथो दिवि ।
ससङ्कुलैर्भूतगणैर्ज्वलिते इव रोदसी ॥ १७ ॥ |
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शब्दार्थ |
सूर्यम्—सूर्य को; हत-प्रभम्—क्षीण पड़ती किरणों वाले; पश्य—जरा देखो; ग्रह-मर्दम्—तारों की भिड़न्त; मिथ:—परस्पर; दिवि—आकाश में; स-सङ्कुलै:—एक दूसरे से मिलकर; भूत-गणै:—जीवों द्वारा; ज्वलिते—जलाया जाकर; इव—मानो; रोदसी—रो रहा हो ।. |
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अनुवाद |
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सूर्य की किरणें मन्द पड़ रही हैं और तारे परस्पर भिड़ रहे प्रतीत हो रहे हैं। भ्रमित जीव जलते हुए तथा रोते प्रतीत हो रहे हैं। |
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