मन्य एतैर्महोत्पातैर्नूनं भगवत: पदै: ।
अनन्यपुरुषश्रीभिर्हीना भूर्हतसौभगा ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
मन्ये—मैं मान लेता हूँ; एतै:—इन सबसे; महा—महान्; उत्पातै:—उत्पातों से; नूनम्—के अभाव में; भगवत:—भगवान् का; पदै:—पाँव के तलवे में चिह्न; अनन्य—असामान्य; पुरुष—परम पुरुष का; श्रीभि:—शुभ चिह्नों से; हीना—विहीन; भू:— पृथ्वी; हत-सौभगा—सौभाग्य से रहित ।.
अनुवाद
मैं सोचता हूँ कि पृथ्वी पर की ये सारी उथल-पुथल विश्व के सौभाग्य की किसी बहुत बड़ी हानि को सूचित करनेवाले हैं। संसार भाग्यशाली था कि उस पर भगवान् के चरणकमलों के पदचिन्ह अंकित हुए। किन्तु ये लक्षण यह सूचित कर रहे हैं कि अब आगे ऐसा नहीं रह पाएगा।
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