कालस्य च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिण: ।
पापीयसीं नृणां वार्तां क्रोधलोभानृतात्मनाम् ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
कालस्य—शाश्वत समय की; च—भी; गतिम्—दिशा; रौद्राम्—भयानक; विपर्यस्त—विपरीत; ऋतु—मौसम की; धर्मिण:— नियमितताएँ; पापीयसीम्—पापी; नृणाम्—मनुष्य की; वार्ताम्—जीविका का साधन; क्रोध—क्रोध; लोभ—लोभ; अनृत— झूठ; आत्मनाम्—लोगों का ।.
अनुवाद
उन्होंने देखा कि सनातन काल की गति बदल गई है और यह अत्यन्त भयावह था। ऋतु सम्बन्धी नियमितताओं में व्यतिक्रम हो रहे थे। सामान्य लोग अत्यन्त लालची, क्रोधी तथा धोखेबाज हो गये थे। वे देख रहे थे कि वे सभी जीविका के अनुचित साधन अपना रहे थे।
तात्पर्य
जब सभ्यता का सम्बन्ध पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रेम से टूट जाता है, तो ऋतु की नियमितता में परिवर्तन, जीविका के अनुचित साधन, लोभ, क्रोध तथा धोखाधड़ी जैसे लक्षणों का प्राधान्य हो जाता है। ऋतु-सम्बन्धी नियमितता के परिवर्तन का अर्थ है, एक ऋतु के समय दूसरी ऋतु के लक्षणों का प्रकट होना। उदाहरणार्थ, वर्षाऋतु, शरद्ऋतु में चली जाय या एक ऋतु में फूलने-फलने की क्रिया दूसरी ऋतु में होने लगे। ईश्वरविहीन मनुष्य अनिवार्यत: लालची, क्रोधी तथा धोखेबाज होता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी साधन से अपनी जीविका चला सकता है चाहे वह साधन उचित हो या अनुचित। महाराज युधिष्ठिर के राज्यकाल में ध्यान खींचने वाली बात यह थी कि उपर्युक्त सारे लक्षणों का अभाव था। लेकिन जब महाराज युधिष्ठिर को अपने राज्य के दैवी वातावरण में यत्किंचित् परिवर्तन का अनुभव होने लगा, तो वे चकित हो गए और उन्हें तुरन्त आशंका हुई कि भगवान् अप्रकट हो गये हैं। जीविका के अनुचित साधनों का अर्थ है, अपने वृत्तिपरक कर्म से हटना। हर एक के लिए, चाहे वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र, कुछ कर्म नियत हैं, किन्तु यदि कोई इन कर्मों को न करके, अन्यों के कर्म को अपना कर्म घोषित करते हुए उसे अपनाता है, तो वह अनुचित कर्तव्य का पालन करता है। जब मनुष्य के समक्ष उच्चतर जीवन-उद्देश्य नहीं होता और वह सोचता है कि उसका कुछ वर्षों का भौतिक जीवन ही सब कुछ है, तो मनुष्य सम्पत्ति तथा शक्ति के लिए अत्यधिक लोभी बन जाता है। अज्ञान ही मानव समाज की सारी विसंगतियों का कारण है और इस अज्ञान को हटाने के लिए, विशेष रूप से इस अधोगति के युग में, श्रीमद्भागवत रूपी प्रबल सूर्य अपना प्रकाश वितरित करने के लिए उपलब्ध है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.