श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 14: भगवान् श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना  »  श्लोक 32-33
 
 
श्लोक  1.14.32-33 
तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवादय: ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभा: ॥ ३२ ॥
अपि स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्णभुजाश्रया: ।
अपि स्मरन्ति कुशलमस्माकं बद्धसौहृदा: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
तथा एव—इसी प्रकार; अनुचरा:—नित्य-संगी; शौरे:—भगवान् श्रीकृष्ण के, यथा; श्रुतदेव—श्रुतदेव; उद्धव-आदय:—उद्धव तथा अन्य; सुनन्द—सुनन्द; नन्द—नन्द; शीर्षण्या:—अन्य नायक; ये—वे सब; च—तथा; अन्ये—अन्य; सात्वत—मुक्त जीव; ऋषभा:—श्रेष्ठ पुरुष; अपि—यदि; स्वस्ति—कुशल से; आसते—हैं; सर्वे—वे सब; राम—बलराम; कृष्ण—भगवान् कृष्ण; भुज-आश्रया:—के संरक्षण में; अपि—यदि भी; स्मरन्ति—स्मरण करते हैं; कुशलम्—कुशलता; अस्माकम्—हमारे; बद्ध सौहृदा:—शाश्वत मैत्री से बँधे हुए ।.
 
अनुवाद
 
 इसके अतिरिक्त, श्रुतदेव, उद्धव तथा अन्य, नन्द, सुनन्द तथा अन्य मुक्तात्माओं के नायक, जो भगवान् के नित्यसंगी हैं, भगवान् बलराम तथा कृष्ण द्वारा सुरक्षित तो हैं? वे सब अपना- अपना कार्य ठीक से चला रहें हैं न? वे जो हमसे नित्य मैत्री-पाश में बँधे हैं, हमारी कुशलता के बारे में पूछते तो हैं?
 
तात्पर्य
 भगवान् कृष्ण के नित्यसंगी, यथा उद्धव, सबके सब मुक्तात्माएँ हैं और वे भगवान् के ही कार्य को परिपूर्ण करने के लिए इस धरा पर अवतरित हुए थे। पाण्डव-जन भी मुक्तात्माएँ हैं, जो भगवान् के साथ इस पृथ्वी पर उनकी दिव्य लीलाओं में सेवा करने के लिए अवतरित हुए। जैसा कि भगवद्गीता (४.८) में कहा गया है, भगवान् तथा भगवान् की ही तरह मुक्तात्माएँ, उनके नित्यसंगी, कुछ-कुछ अन्तरालों के बाद इस पृथ्वी पर आते रहते हैं। भगवान् उन सबों को स्मरण रखते हैं, लेकिन उनके संगी, मुक्तात्माएँ होते हुए भी, तटस्था शक्ति होने के कारण भूल जाते हैं। विष्णु तत्त्व तथा जीव तत्त्व में यही अन्तर होता है। जीव-तत्त्व भगवान् के अत्यन्त सूक्ष्म शक्तिमान कण हैं, अतएव उन्हें सदैव भगवान् की सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है और भगवान् अपने सेवकों को सर्वदा समस्त सुरक्षा प्रदान करने में प्रसन्न रहते हैं। अतएव मुक्तात्माएँ कभी भी अपने को भगवान् के समान मुक्त या भगवान् के समान शक्तिमान नहीं मानतीं, अपितु सभी परिस्थितियों में, चाहे भौतिक जगत में हों या आध्यात्मिक जगत में, भगवान् की सुरक्षा की कामना करती हैं। मुक्तात्मा की यह पराश्रयता स्वाभाविक है, क्योंकि मुक्तात्माएँ अग्नि के स्फुलिंगों की भाँति हैं, जो अग्नि की उपस्थिति में ही अपनी चमक दिखा सकती हैं, स्वतंत्र रूप से नहीं। स्वतंत्र रूप से, स्फुलिंग की चमक बुझ जाती है, भले ही उसमें अग्नि के गुण तथा चमक रहती है। अतएव जो भगवान् की सुरक्षा त्यागकर, आध्यात्मिक अज्ञान के कारण स्वयं प्रभु बन जाते हैं, वे पुन: इस भौतिक जगत में आते हैं, भले ही वे कठोर से कठोर तपस्या क्यों न करें। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का यही मत है।
 
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