मङ्गलाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय च ।
आस्ते यदुकुलाम्भोधावाद्योऽनन्तसख: पुमान् ॥ ३५ ॥
यद्बाहुदण्डगुप्तायां स्वपुर्यां यदवोऽर्चिता: ।
क्रीडन्ति परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥ ३६ ॥
शब्दार्थ
मङ्गलाय—कल्याण के लिए; च—भी; लोकानाम्—समस्त लोकों के; क्षेमाय—सुरक्षा के लिए; च—तथा; भवाय—उन्नति के लिए; च—भी; आस्ते—हैं; यदु-कुल-अम्भोधौ—यदुवंश रूपी सागर में; आद्य:—आदि; अनन्त-सख:—अनन्त (बलराम) के साथ; पुमान्—परम भोक्ता; यत्—जिसको; बाहु-दण्ड-गुप्तायाम्—उनके बाहुओं से सुरक्षित होकर; स्व-पुर्याम्—अपनी नगरी में; यदव:—यदुवंश के सदस्य; अर्चिता:—योग्यता के अनुसार; क्रीडन्ति—आनन्द ले रहे हैं; परम-आनन्दम्—दिव्य आनन्द; महा-पौरुषिका:—वैकुण्ठ के वासी; इव—सदृश ।.
अनुवाद
परम भोक्ता आदि भगवान् तथा जो मूल भगवान् अनन्त हैं, बलराम यदुवंश रूपी सागर में समस्त ब्रह्माण्ड के कल्याण, सुरक्षा तथा उन्नति के लिए निवास कर रहे हैं। और सारे यदुवंशी भगवान् की भुजाओं द्वारा सुरक्षित रहकर, वैकुण्ठवासियों की भाँति जीवन का आनन्द उठा रहे हैं।
तात्पर्य
जैसाकि हम कई बार बता चुके हैं, भगवान् विष्णु प्रत्येक ब्रह्माण्ड में दो रूपों में निवास करते हैं—गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में तथा क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में। क्षीरोदकशायी विष्णु का अपना लोक है, जो ब्रह्माण्ड के उत्तरी शीर्ष पर है और वहाँ क्षीर का एक विशाल समुद्र है, जिसमें वे बलदेव के अवतार अनन्त की शय्या पर वास करते हैं। इस प्रकार महाराज युधिष्ठिर ने यदुवंश की तुलना क्षीरसागर से की है और श्री बलराम की तुलना अनन्त से की है, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण वास करते हैं। उन्होंने द्वारका के निवासियों की तुलना वैकुण्ठलोक के मुक्त निवासियों से की है। भौतिक आकाश के परे, जहाँ तक हमारी आँखें देख सकती हैं उससे भी आगे तथा ब्रह्माण्ड के सप्तावरणों के भी आगे कारणार्णव सागर है, जिसमें सारे ब्रह्माण्ड गेंद की तरह तैर रहे हैं। इस कारण सागर के आगे वैकुण्ठलोक का असीम पाट है, जिसे सामान्यतया ब्रह्मतेज कहते हैं। इस तेज में असंख्य आध्यात्मिक ग्रह हैं और वे वैकुण्ठलोक के नाम से जाने जाते हैं। इनमें से प्रत्येक वैकुण्ठ ग्रह इस भौतिक जगत के सबसे बड़े ब्रह्माण्ड से भी बड़ा है और प्रत्येक में असंख्य निवासी रहते हैं, जो बिलकुल भगवान् विष्णु जैसे दिखते हैं। ये निवासी महापौरुषिक कहलाते हैं—अर्थात् ऐसे पुरुष, जो प्रत्यक्ष रुप में भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं। वे उन ग्रहों में सुखी हैं और उन्हें कोई कष्ट नहीं सताता, वे सदैव तरुण बने रहते हैं और पूर्ण आनन्द तथा ज्ञान का जीवन बिताते हैं जिसमें जन्म, मृत्यु, जरा या रोग का कोई भय नहीं रहता और उन पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता। महाराज युधिष्ठिर ने द्वारकावासियों की तुलना वैकुण्ठलोक के महापौरुषिकों से की है, क्योंकि वे भगवान् के साथ परम प्रसन्न हैं। भगवद्गीता में वैकुण्ठलोकों का कई बार संदर्भ आया है और वहाँ वे मद्धाम (मेरे धाम) के रूप में अर्थात् भगवद्धाम के रूप में वर्णित हुए हैं।
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