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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 14: भगवान् श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  1.14.39 
कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।
अलब्धमानोऽवज्ञात: किं वा तात चिरोषित: ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
कच्चित्—कहीं; ते—तुम्हारा; अनामयम्—स्वास्थ्य ठीक तो है; तात—मेरे भ्राता; भ्रष्ट—विहीन; तेजा:—कान्ति; विभासि— प्रतीत होते हो; मे—मुझको; अलब्ध-मान:—सम्मान न पाया हुआ; अवज्ञात:—उपेक्षित; किम्—क्या; वा—अथवा; तात—मेरे भ्राता; चिरोषित:—दीर्घकाल तक रहने के कारण ।.
 
अनुवाद
 
 मेरे भाई अर्जुन, मुझे बताओ कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक तो है? ऐसा लगता है कि तुम्हारे शरीर की कान्ति खो गई है। क्या द्वारका में दीर्घकाल तक रहने से, अन्यों द्वारा असम्मान तथा उपेक्षा दिखलाने से ऐसा हुआ है?
 
तात्पर्य
 महाराज युधिष्ठिर ने सभी प्रकार से अर्जुन से द्वारका का कुशलक्षेम पूछा, लेकिन उन्होंने अन्त में यही निष्कर्ष निकाला कि जब तक स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ थे, तब तक कोई अशुभ घटना नहीं घट सकती थी। लेकिन साथ ही, अर्जुन कान्तिहीन लग रहे थे, अतएव राजा ने उनसे उनकी कुशलता पूछी और साथ ही अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी पूछे।
 
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