जिह्मप्रायं व्यवहृतं शाठ्यमिश्रं च सौहृदम् ।
पितृमातृसुहृद्भ्रातृदम्पतीनां च कल्कनम् ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
जिह्म-प्रायम्—धोखा देना; व्यवहृतम्—समस्त सामान्य लेन-देन के कार्यों में; शाठ्य—कपट; मिश्रम्—अपमिश्रित; च—तथा; सौहृदम्—मैत्रीपूर्ण शुभचिन्तकों से सम्बन्धित; पितृ—पिता; मातृ—माता-सम्बन्धी; सुहृत्—शुभचिन्तक; भ्रातृ—निजी भाई; दम्-पतीनाम्—पति-पत्नी-विषयक; च—भी; कल्कनम्—पारस्परिक कलह ।.
अनुवाद
सारे सामान्य लेन-देन, यहाँ तक कि मित्रों के बीच के व्यवहार तक, कपट के कारण दूषित हो गये थे। पारिवारिक मामलों में पिता, माता तथा पुत्रों के बीच, शुभचिन्तकों के बीच तथा भाई-भाई के बीच सदैव गलतफहमी होती थी। यहाँ तक कि पति तथा पत्नी के बीच भी सदैव तनाव तथा झगड़ा होता रहता था।
तात्पर्य
बद्धजीव में चार दुर्गुण पाये जाते हैं—त्रुटियाँ करना, मूर्खता, असमर्थता तथा वंचकता (ठगी)। ये अपूर्णता के लक्षण हैं और इन चारों में से अन्यों को ठगने की प्रवृत्ति की प्रधानता रहती है। यह ठगी बद्धजीवों में इसलिए आती है, क्योंकि वे प्रकृति पर प्रभुता जताने की अप्राकृतिक इच्छा से लिप्त होकर भौतिक जगत् में फँसे हुए हैं। शुद्ध अवस्था में जीव नियमों द्वारा बद्ध नहीं रहता, क्योंकि अपनी शुद्ध अवस्था में उसे यह ज्ञान रहता है कि जीव परम पुरुष के अधीन है और इस तरह अधीन बने रहना उसके हित में है, बजाय इसके कि वह परमेश्वर की सम्पत्ति पर झूठी प्रभुता जताये। बद्ध अवस्था में यदि उसे सर्वस्व मिल जाए जो उसे कभी मिलनेवाला नहीं हैं, तो भी वह तुष्ट नहीं होता, अतएव वह सभी प्रकार की ठगी करने लगता है, यहाँ तक कि वह अपने निकटतम प्रिय सम्बन्धियों को भी ठगता है। ऐसी असंतोषजनक स्थिति में पिता तथा पुत्र या पति तथा पत्नी के बीच भी मेल नहीं रह पाता। लेकिन इन सभी विरोधी कठिनाइयों को एक विधि से दूर किया जा सकता है, और वह है भगवान् की भक्तिमय सेवा। पाखण्डमय संसार को भगवान् की भक्तिमय सेवा की प्रतिक्रिया द्वारा ही रोका जा सकता है, अन्य किसी विधि से नहीं। जब महाराज युधिष्ठिर ने इस प्रकार की विषमता देखी, तो उन्होंने अनुमान लगा लिया कि इस धरती से भगवान् का तिरोभाव हो चुका है।
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