श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 14: भगवान् श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  1.14.40 
कच्चिन्नाभिहतोऽभावै: शब्दादिभिरमङ्गलै: ।
न दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम् ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
कच्चित्—कहीं; न—नहीं; अभिहत:—सम्बोधित, कहा गया; अभावै:—अमित्रतापूर्ण; शब्द-आदिभि:—शब्दों आदि से; अमङ्गलै:—अशुभ; न—नहीं; दत्तम्—दान में दिया गया; उक्तम्—कहा गया; अर्थिभ्य:—याचक को; आशया—आशा से; यत्—जो; प्रतिश्रुतम्—दिये जाने के लिए वचन-बद्ध ।.
 
अनुवाद
 
 कहीं किसी ने तुम्हें अपमानजनक शब्द तो नहीं कहे? या तुम्हें धमकाया तो नहीं? क्या तुम याचक को दान नहीं दे सके? या किसी से अपना वचन नहीं निभा पाये?
 
तात्पर्य
 क्षत्रिय या धनी व्यक्ति के पास कभी-कभी ऐसे व्यक्ति आते हैं, जिन्हें धन की आवश्यकता रहती है। जब उन्हें दान देने के लिए कहा जाता है, तो धन के स्वामी का कर्तव्य है कि पात्र, देश तथा काल का विचार करते हुए दान दे। यदि क्षत्रिय या धनी व्यक्ति इस कर्तव्य को पूरा नहीं कर पाता, तो उसे इस विसंगति केलिए खेद होना चाहिए। इसी प्रकार दान देने के अपने वचन को नहीं भूलना चाहिए। ये त्रुटियाँ कभी-कभी निराशा का कारण बनती हैं और विफल होने पर मनुष्य आलोचना का भागी होता है और यही अर्जुन की विपन्नावस्था का कारण हो सकता था।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥