कच्चित्—कहीं; त्वम्—तुमने; न—नहीं; अगम:—सम्पर्क किया है; अगम्याम्—दुश्चरित्र; गम्याम्—स्वीकार्य; वा—अथवा; असत्-कृताम्—अनुचित व्यवहार; स्त्रियम्—स्त्री से; पराजित:—हराया हुआ; वा—अथवा; अथ—अन्तत:; भवान्—तुम; न—न तो; उत्तमै:—उच्चतर शक्ति द्वारा; न—नहीं; असमै:—समान धर्म वाले द्वारा; पथि—मार्ग में ।.
अनुवाद
क्या तुमने दुश्चरित्र स्त्री से समागम किया है अथवा सुपात्र स्त्री के साथ तुमने भद्र व्यवहार नहीं किया? अथवा तुम मार्ग में किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा पराजित किये गये हो, जो तुमसे निकृष्ट है या तुम्हारे समकक्ष हो?
तात्पर्य
इस श्लोक से ऐसा प्रतीत होता है कि पाण्डवों के काल में पुरुष तथा स्त्री को, कतिपय परिस्थितियों में मुक्त ही, समागम करने दिया जाता था। उच्च जाति के लोग अर्थात् ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वैश्य या शूद्र जाति की स्त्री को स्वीकार कर सकते थे, किन्तु निम्न जाति का व्यक्ति उच्च जाति की स्त्री से सम्पर्क नहीं कर सकता था। यहाँ तक कि क्षत्रिय भी ब्राह्मण जाति की स्त्री से समागम नहीं कर सकता था। ब्राह्मण की पत्नी सात माताओं में से एक मानी जाती है (अपनी माता, गुरु अथवा शिक्षक की पत्नी, ब्राह्मणी, राजा की पत्नी, गाय, धाय तथा पृथ्वी—ये सप्त मातृकाएँ हैं)। पुरुष तथा स्त्री के ऐसे समागम को उत्तम तथा अधम कहा जाता था। ब्राह्मण पुरुष तथा क्षत्रिय स्त्री का समागम उत्तम होता था, किन्तु क्षत्रिय पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री का समागम अधम होता था, अतएव कुत्सित माना जाता था। यदि कोई स्त्री, किसी पुरुष के पास समागम की इच्छा से जाये, तो उसे कभी मना नहीं करना चाहिए, लेकिन जैसाकि ऊपर कहा गया है, विवेक से काम लेना चाहिए। भीम के पास हिडिम्बा आई थी और वह शूद्र से भी निम्न जाति की थी। ययाति ने शुक्राचार्य की पुत्री के साथ विवाह करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि शुक्राचार्य ब्राह्मण थे। व्यासदेव ब्राह्मण थे। उनसे पाण्डु तथा धृतराष्ट्र को जन्म देने के लिए कहा गया था। सत्यवती मछुआरे की जाति की कन्या थी, लेकिन महान् ब्राह्मण पराशर द्वारा उससे व्यासदेव का जन्म हुआ। अतएव स्त्री के साथ समागम के अनेक उदाहरण हैं, किन्तु ये सारे समागम न तो निन्दनीय थे, न ऐसे समागम के परिणाम बुरे थे। पुरुष तथा स्त्री का समागम स्वाभाविक है, लेकिन इसे भी विधानपूर्वक होना चाहिए, जिससे सामाजिक प्रतिष्ठा न बिगड़े या वर्णसंकर की वृद्धि होने से विश्व में अशान्ति न फैले।
क्षत्रिय के लिए यह निन्दनीय है कि वह अपने से निम्न या समकक्ष बलवाले से पराजित हो। यदि कोई हारे, तो उसे किसी श्रेष्ठ शक्ति से हारना चाहिए। अर्जुन भीष्मदेव से पराजित हुए थे और कृष्ण ने उन्हें विपत्ति से बचाया था। यह अर्जुन के लिए अपमान नहीं था, क्योंकि भीष्मदेव सभी प्रकार से अर्जुन से श्रेष्ठ थे—चाहे आयु को लें, सम्मान को लें, या बल को लें। लेकिन कर्ण अर्जुन के समकक्ष था। अतएव कर्ण से युद्ध करते हुए अर्जुन संकट में था। अर्जुन को यह बुरा लगा, अतएव कर्ण छल से भी मारा गया। क्षत्रिय के ऐसे-ऐसे कार्य होते हैं और महाराज युधिष्ठिर ने अपने भाई से पूछा कि द्वारका से घर आते हुए कहीं कोई प्रतिकूल घटना तो नहीं घट गई?
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