श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 14: भगवान् श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  1.14.43 
अपि स्वित्पर्यभुङ्‍क्‍थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान् ।
जुगुप्सितं कर्म किञ्चित्कृतवान्न यदक्षमम् ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
अपि स्वित्—यदि ऐसा हो तो; पर्य—एक ओर छोडक़र; भुङ्क्था:—खाया है; त्वम्—तुमने; सम्भोज्यान्—साथ-साथ खाने के योग्य; वृद्ध—वृद्ध पुरुषों को; बालकान्—बच्चों को; जुगुप्सितम्—गर्हित; कर्म—काम; किञ्चित्—कुछ; कृतवान्—तूमने किया होगा; न—नहीं; यत्—जो; अक्षमम्—जिसे क्षमा न किया जा सके ।.
 
अनुवाद
 
 क्या तुमने उन वृद्धों तथा बालकों की परवाह नहीं की, जो तुम्हारे साथ भोजन करने के योग्य थे? क्या उन्हें छोडक़र तुमने अकेले भोजन किया है? क्या तुमने कोई अक्षम्य गलती की है, जो निन्दनीय मानी जाती है?
 
तात्पर्य
 गृहस्थ का धर्म है कि वह पहले बालकों, परिवार के बूढ़ों, ब्राह्मणों तथा अशक्तों को भोजन करा दे। इसके साथ ही, आदर्श गृहस्थ को चाहिए कि यदि कोई अज्ञात भूखा व्यक्ति हो, तो उसे बुलाकर खिला दे और तब स्वयं भोजन करे। उसे ऐसे भूखे व्यक्ति को मार्ग में जाकर तीन बार बुलाना चाहिए। गृहस्थ के लिए निर्धारित इस कर्तव्य की अवहेलना, विशेषकर बूढ़ों तथा बच्चों की अवहेलना, अक्षम्य है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥