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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 14: भगवान् श्रीकृष्ण का अन्तर्धान होना  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  1.14.5 
निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले त्वनुगते नृणाम् ।
लोभाद्यधर्मप्रकृतिं द‍ृष्ट्वोवाचानुजं नृप: ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
निमित्तानि—कारण; अति—गम्भीर; अरिष्टानि—अशुभ लक्षण, अपशकुन; काले—कालक्रम में; तु—लेकिन; अनुगते— चला जाना; नृणाम्—मानव जाति का; लोभ-आदि—यथा लालच; अधर्म—अधर्म; प्रकृतिम्—आदतें; दृष्ट्वा—देख कर; उवाच—कहा; अनुजम्—छोटे भाई से; नृप:—राजा ने ।.
 
अनुवाद
 
 कालक्रम में ऐसा हुआ कि लोग लोभ, क्रोध, गर्व इत्यादि के अभ्यस्त हो गये। महाराज युधिष्ठिर ने इन सब अपशकुनों को देखकर अपने छोटे भाई से कहा।
 
तात्पर्य
 जब समाज में लोभ, क्रोध, अधर्म तथा दम्भ जैसे अमानवीय लक्षणों का प्राधान्य हो उठा, तो महाराज युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा राजा अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे। इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि पतित समाज के ये सारे लक्षण उस काल के लोगों को अज्ञात थे और कलियुग के आगमन के साथ इनका अनुभव किया जाना उनके लिए आश्चर्यजनक था।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥