अपि देवर्षिणादिष्ट: स कालोऽयमुपस्थित: ।
यदात्मनोऽङ्गमाक्रीडं भगवानुत्सिसृक्षति ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
अपि—क्या; देव-ऋषिणा—देवर्षि (नारद) द्वारा; आदिष्ट:—आदेश दिया गया; स:—वह; काल:—शाश्वत समय; अयम्— यह; उपस्थित:—आ चुका है; यदा—जब; आत्मन:—अपने आप; अङ्गम्—अंश; आक्रीडम्—प्राकट्य; भगवान्—भगवान्; उत्सिसृक्षति—छोडऩे जा रहे हैं ।.
अनुवाद
क्या वे अपनी मर्त्यलोक की लीलाओं को छोडऩे जा रहे हैं, जैसा देवर्षि नारद ने इंगित किया था? क्या वह समय आ भी चुका है?
तात्पर्य
जैसा हम कई बार बतला चुके हैं, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के कई पूर्ण अंश हैं और इनमें से यद्यपि सभी समान रूप से शक्तिमान हैं, किन्तु वे भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। भगवद्गीता में भगवान् के कई तरह के कथन हैं और इनमें से प्रत्येक कथन विभिन्न अंशों या अंशांशों के लिए है। उदाहरणार्थ, भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—
“हे भारत, जब जब भी और जहाँ जहाँ भी, धर्म का पतन तथा अधर्म का प्राधान्य होने लगता है, तब-तब मैं अवतरित होता हूँ।” (भगवद्गीता ४.७) “भक्तजनों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म के सिद्धान्तों की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।” (भगवद्गीता ४.८) “यदि मैं कर्म न करूँ, तो सारे लोग कुपथगामी हो जाँय। तब मैं अवांछित जन-समुदाय (वर्णसंकर) को उत्पन्न करने का कारण बनूँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशकर्ता बनूँगा।” (भगवद्गीता ३.२४) “महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य लोग उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो भी आदर्श प्रस्तुत करता है, संपूर्ण विश्व उसी का अनुगमन करता है।” (भगवद्गीता ३.२१) उपर्युक्त सारे कथन भगवान् के विभिन्न अंशों पर लागू होते हैं—यथा संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा नारायण—इन सब दिव्य अंशों में वे स्वयं ही हैं। फिर भी श्रीकृष्ण के रूप में भगवान् अपने विभिन्न कोटि के भक्तों से विभिन्न प्रकार की दिव्यानुभूति का आदान-प्रदान करते हैं। तो भी भगवान् कृष्ण अपने मूल रूप में, ब्रह्मा के प्रत्येक चौबीस घण्टों में (या ८,६४,००,००,००० सौर वर्षों के बाद) प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक बार प्रकट होते हैं और उनकी सारी दिव्य लीलाएँ प्रत्येक ब्रह्माण्ड में क्रमश: दिखलाई पड़ती हैं। किन्तु निपट अनजान व्यक्ति के लिए, भगवान् कृष्ण, भगवान् वासुदेव आदि के कार्य जटिल समस्याएँ बने रहते हैं। स्वयं भगवान् तथा भगवान् के दिव्य शरीर में कोई भी अन्तर नहीं है। विभिन्न अंश तरह-तरह के कार्य सम्पन्न करते हैं। किन्तु जब भगवान्, सशरीर श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होते हैं, तब उनके अन्य अंश भी उनकी अचिन्त्य शक्ति योगमाया से उनके साथ हो लेते हैं। इस प्रकार वृन्दावन के भगवान् कृष्ण मथुरा या द्वारका के कृष्ण से भिन्न हैं। इसी तरह कृष्ण का विराट् रूप भी उनकी अचिन्त्य शक्ति के द्वारा उनसे भिन्न है। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में प्रदर्शित विराट रूप उनके रूप की भौतिक अवधारणा है। अतएव यह समझ लेना चाहिए कि जब बहेलिया के तीर- कमान से भगवान् कृष्ण बाह्य दृष्टि से मारे गये, तब भगवान् अपना तथाकथित भौतिक शरीर इसी संसार में छोड़ते गये। भगवान् तो कैवल्य हैं और उनके लिए पदार्थ तथा आत्मा में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि उन्हीं से प्रत्येक वस्तु उत्पन्न हुइ है। अतएव उनके द्वारा एक शरीर को त्यागना या दूसरा शरीर ग्रहण करने का अर्थ यह नहीं है कि वे सामान्य जीव जैसे हैं। ऐसे सारे कार्यकलाप उनकी अचिन्त्य शक्ति के कारण एक ही साथ एक तथा भिन्न-भिन्न हैं। जब महाराज युधिष्ठिर उनके अन्तर्धान होने की सम्भावना से शोकाकुल थे, तो यह अपने घनिष्ठ मित्र के अन्तर्धान होने पर शोक करने की प्रथा स्वरूप था, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भगवान् कभी भी अपना दिव्य शरीर नहीं त्यागते, जैसाकि अल्पज्ञानी लोग भ्रमवश सोचते हैं। भगवद्गीता में स्वयं भगवान् ने ऐसे अल्पज्ञों की भर्त्सना की है और उन्हें मूढ़ कहा गया है। भगवान् के शरीर-त्याग का अर्थ यह हुआ कि उन्होंने पुन: अपने अंशों को अपने-अपने दिव्य धामों में छोड़ दिया, जिस तरह इस संसार में उन्होंने अपना विराट् रूप छोड़ा था।
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