श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  1.15.11 
यो नो जुगोप वन एत्य दुरन्तकृच्छ्राद्
दुर्वाससोऽरिरचितादयुताग्रभुग् य: ।
शाकान्नशिष्टमुपयुज्य यतस्त्रिलोकीं
तृप्ताममंस्त सलिले विनिमग्नसङ्घ: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जिसने; न:—हमको; जुगोप—सुरक्षा प्रदान की; वने—वन में; एत्य—प्रवेश करके; दुरन्त—भयानक; कृच्छ्रात्—संकट से; दुर्वासस:—दुर्वासा मुनि के; अरि—शत्रु द्वारा; रचितात्—बनाया गया; अयुत—दस हजार; अग्र-भुक्—पहले खानेवाला; य:—वह व्यक्ति; शाक-अन्न-शिष्टम्—बचा हुआ भोजन, जूठन; उपयुज्य—स्वीकार करके; यत:—क्योंकि; त्रि-लोकीम्— तीनों संसारों को; तृप्ताम्—संतुष्ट; अमंस्त—मन में सोचा; सलिले—जल के भीतर; विनिमग्न-सङ्घ:—सभी जल में विलीन हुए ।.
 
अनुवाद
 
 हमारे वनवास के समय, दस हजार शिष्यों के साथ भोजन करनेवाले दुर्वासा मुनि ने हमें भयावह संकट में डालने के लिए, हमारे शत्रुओं के साथ मिलकर चाल चली। उस समय उन्होंने (कृष्ण ने) केवल जूठन ग्रहण करके हमें बचाया था। इस तरह उनके भोजन ग्रहण करने से नदी में स्नान करती मुनि-मण्डली ने अनुभव किया कि वह भोजन से पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गई और तीनों लोक भी सन्तुष्ट हो गये।
 
तात्पर्य
 दुर्वासा मुनि—ये शक्तिशाली योगी ब्राह्मण थे, जिन्होंने कठिन तपस्या तथा महान् व्रतों के द्वारा धर्म के नियमों का पालन करने का संकल्प किया था। उनका नाम अनेक ऐतिहासिक घटनाओं के साथ जुड़ा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें शिवजी की भाँति सरलता से प्रसन्न किया जा सकता था तथा सरलता से रुष्ट किया जा सकता था। प्रसन्न होने पर, वे सेवक का अपार शुभ कर सकते थे और अप्रसन्न होने पर भारी विपदा उत्पन्न कर सकते थे। कुमारी कुन्ती अपने पिता के घर में सभी महान् ब्राह्मणों की सेवा किया करती थीं और उनके अच्छे सत्कार से प्रसन्न होकर दुर्वासा मुनि ने उन्हें ऐसी शक्ति का वर दिया कि जिससे वे इच्छित देवता का आवाहन कर सकती थीं। ऐसा समझा जाता है कि वे शिवजी के अंशावतार थे, अतएव वे शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट किए जा सकते थे। वे शिव के महान् भक्त थे और शिवजी के आदेश से उन्होंने श्वेतकेतु का पुरोहित बनना स्वीकार किया था, क्योंकि श्वेतकेतु एक सौ वर्षों तक यज्ञ कर चुके थे। वे कभी-कभी इन्द्रदेव की स्वर्ग-सभा में भी जाया करते थे। वे अपनी महान् योगशक्ति के बल से बाह्यावकाश में यात्रा कर सकते थे और ऐसा समझा जाता है कि उन्होंने बाह्यावकाश में बहुत दूरी तक-भौतिक आकाश से भी परे वैकुण्ठ के ग्रहों तक यात्रा की थी। उन्होंने इतनी लम्बी दूरी एक वर्ष में तब तय की थी, जब उन्होंने चक्रवर्ती सम्राट एवं परम भक्त राजा अम्बरीष से झगड़ा किया था।

उनके लगभग दस हजार शिष्य थे और वे जहाँ कहीं जाते तथा जिन क्षत्रिय राजाओं के अतिथि बनते, वहीं अपने बहुत से शिष्यों को साथ लेते जाते। एक बार वे महाराज युधिष्ठिर के शत्रु चचेरे भाई दुर्योधन के घर गये। दुर्योधन इतना तो बुद्धिमान था कि वह समझे कि ब्राह्मण को सब प्रकार से सन्तुष्ट करना चाहिए और ऐसा करने पर इस महर्षि ने दुर्योधन को कुछ वरदान देना चाहा। दुर्योधन इनकी योगशक्ति से परिचित था और उसे यह भी पता था कि ये योगी ब्राह्मण अप्रसन्न होने पर किस प्रकार ये बवंडर खड़ा कर सकते हैं। अतएव उसने ऐसी चाल सोची कि यह ब्राह्मण अपना क्रोध उनके शत्रु पाण्डवों पर उतारे। जब ऋषि ने दुर्योधन को कुछ वर देना चाहा, तो उसने इच्छा व्यक्त कि अच्छा हो यदि श्रीमान् उसके अग्रज तथा प्रमुख महाराज युधिष्ठिर के घर जायें। लेकिन उसने विनति की कि वे तब पहुँचें, जब युधिष्ठिर अपनी महारानी द्रौपदी के साथ भोजन कर चुके हों। दुर्योधन जानता था कि द्रौपदी के साथ भोजन करने के बाद महाराज युधिष्ठिर इतने सारे ब्राह्मण अतिथियों को भोजन नहीं दे पायेंगे और तब यह ऋषि क्रुद्ध होकर महाराज युधिष्ठिर के लिए संकट उत्पन्न कर देंगे। यह थी दुर्योधन की योजना। दुर्वासा मुनि ने उसके प्रस्ताव को मान लिया और दुर्योधन की योजना के अनुसार ही वनवासी राजा के यहाँ उस समय पहुँचे, जब राजा तथा द्रौपदी भोजन कर चुके थे।

महाराज युधिष्ठिर के द्वार पर पहुँचते ही दुर्वासा ऋषि का स्वागत किया गया और राजा ने उनसे प्रार्थना की कि वे दोपहर का धार्मिक कृत्य नदी के किनारे सम्पन्न करें, क्योंकि तब तक भोजन तैयार हो जाएगा। दुर्वासा अपने अनेक शिष्यों सहित नदी में स्नान करने गये और महाराज युधिष्ठिर इन अतिथियों के कारण बहुत चिन्ता करने लगे। जब तक द्रौपदी नहीं खाती थी, तब तक चाहे कितने ही अतिथि क्यों न आ जाँय, उन्हें भोजन दिया जा सकता था, किन्तु ऋषि तो दुर्योधन की योजना के अनुसार, उस समय पहुँचे थे, जब द्रौपदी भोजन कर चुकी थीं।

जब भक्तगण कठिनाई में होते हैं, तब उन्हें ध्यानमग्न होकर भगवान् का स्मरण करने का अवसर प्राप्त होता है। अतएव द्रौपदी उस विषम स्थिति में भगवान् कृष्ण का स्मरण कर रही थीं और सर्वव्यापी भगवान् तुरन्त अपने भक्तों की कठिन स्थिति को समझ गयी। अत: वे वहाँ पर उपस्थित हुए और द्रौपदी से कहा कि जितना भी भोजन बचा हो, उसे वे ले आयें। भगवान् की बात सुनकर द्रौपदी अत्यन्त खिन्न हुईं, क्योंकि भोजन तो था नहीं और भगवान् भोजन माँग रहे थे। उन्होंने भगवान् से कहा कि यदि वे खा न चुकी होतीं, तो सूर्य द्वारा प्रदत्त रहस्यमयी थाली से वे कितना ही भोजन दे सकती थीं, किन्तु उस दिन वे भोजन कर चुकी थीं, अतएव अब संकट उपस्थित था। वे अपनी कठिनाइयाँ बताकर कृष्ण के समक्ष रोने लगीं, जैसाकि ऐसे अवसरों पर स्त्रियाँ करती हैं। किन्तु भगवान् ने द्रौपदी से रसोई के पात्र लाने को कहा, जिससे वे देख सकें कि उनमें कहीं भोजन का कोई कण लगा तो नहीं रह गया है। द्रौपदी के ऐसा करने पर भगवान् ने देखा कि पात्र में शाक का एक कण लगा हुआ है। भगवान् ने उसे निकाल कर तत्क्षण खा लिया। उसके बाद भगवान् ने द्रौपदी से कहा कि दुर्वासा समेत सारे अतिथियों को बुलायें।

भीम को नदी-तट से उन सबों को बुला लाने के लिए भेजा गया। भीम ने कहा, “हे महोदय! आप विलम्ब क्यों कर रहे हैं? आइये, आपके लिए भोजन तैयार है।” किन्तु भगवान् कृष्ण ने भोजन का एक कण ग्रहण कर लिया था, अतएव नदी में स्नान करते समय अतिथियों का भी पेट पूरा भर चुका था। उन्होंने सोचा कि महाराज युधिष्ठिर ने उन सबों के लिए नाना प्रकार के व्यंजन तैयार कराये होंगे और चूँकि उन्हें भूख नहीं लग रही थी और वे खा नहीं सकेंगे, तो महाराज युधिष्ठिर को दुख होगा, अतएव श्रेयस्कर यही होगा कि वे वहाँ जायें ही नहीं। इसलिए उन सबों ने वहाँ से चले जाने का निश्चय किया।

यह घटना सिद्ध करती है कि भगवान् सर्वोत्कृष्ट योगी हैं, अतएव वे योगेश्वर कहलाते हैं। दूसरी शिक्षा यह मिलती है कि प्रत्येक गृहस्थ को चाहिए कि वह भगवान् को भोजन भेंट करे। इसका फल यह होगा कि हर व्यक्ति सन्तुष्ट हो जायेगा, भले ही दस हजार अतिथि क्यों न हों, क्योंकि भगवान् सन्तुष्ट हैं। यही भक्ति की विधि है।

 
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