श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  1.15.12 
यत्तेजसाथ भगवान् युधि शूलपाणि-
र्विस्मापित: सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे ।
अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण
प्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम् ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—जिसके; तेजसा—प्रभाव से; अथ—एक समय; भगवान्—ईश्वर (शिवजी); युधि—युद्ध में; शूल-पाणि:—त्रिशूलधारी; विस्मापित:—आश्चर्यचकित; स-गिरिज:—हिमालय की पुत्री समेत; अस्त्रम्—अस्त्र; अदात्—दिया; निजम्—अपना; मे— मुझको; अन्ये अपि—और दूसरे भी; च—तथा; अहम्—मैं; अमुना—उनके; एव—निश्चय ही; कलेवरेण—शरीर से; प्राप्त:— प्राप्त; महा-इन्द्र-भवने—इन्द्रदेव के घर में; महत्—महान्; आसन-अर्धम्—आधा ऊँचा आसन ।.
 
अनुवाद
 
 यह उन्हीं का प्रताप था कि मैं एक युद्ध में शिवजी तथा उनकी पत्नी पर्वतराज हिमालय की कन्या को आश्चर्यचकित करने में समर्थ हुआ। इस तरह वे (शिवजी) मुझ पर प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे अपना निजी अस्त्र प्रदान किया। अन्य देवताओं ने भी मुझे अपने-अपने अस्त्र भेंट किये और इसके अतिरिक्त, मैं इसी वर्तमान शरीर से स्वर्गलोक पहुँच सका, जहाँ मुझे आधे ऊँचे आसन पर बैठने दिया गया।
 
तात्पर्य
 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रह से शिवजी समेत सारे देवता अर्जुन से प्रसन्न थे। भाव यह है कि जिस किसी पर शिवजी की या किसी अन्य देवता की कृपा होती है, उस पर भगवान् श्रीकृष्ण की भी कृपा हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। रावण निश्चित रूप से शिवजी का महान् भक्त था, किन्तु वह भगवान् रामचन्द्र के क्रोध से बच नहीं पाया। और पुराणों में ऐसी अनेक घटनाएँ भरी पड़ी हैं। किन्तु यहाँ पर एक ऐसा उदाहरण मिलता है, जिसमें शिवजी अर्जुन से युद्ध करके भी प्रसन्न होते हैं। परमेश्वर के भक्त जानते हैं कि देवताओं का सम्मान किस तरह किया जाय, किन्तु देवताओं के भक्त कभी-कभी मूर्खतावश ऐसा सोचते हैं कि भगवान् देवताओं से बड़े नहीं हैं। ऐसी धारणा से मनुष्य अपराधी बन जाता है और उसका अन्त वैसा ही होता है, जैसा रावण तथा अन्यों का हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण के साथ सख्य भाव में सम्पन्न कार्यों का अर्जुन द्वारा किया गया उल्लेख उन सबों के लिए शिक्षाप्रद है, जो इस शिक्षा से आश्वस्त हैं कि एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण को प्रसन्न करके अन्य सारे वर प्राप्त किये जा सकते हैं। किन्तु देवताओं के भक्तों या पूजकों को केवल आंशिक लाभ होगा, जो खुद देवताओं की ही भाँति विनाशशील होगा।

इस श्लोक की दूसरी महत्ता यह है कि भगवान् कृष्ण की कृपा से अर्जुन इसी शरीर से स्वर्गलोक पहुँच सके, जहाँ स्वर्ग के देवता इन्द्रदेव ने अर्ध-ऊँचे सिंहासन पर अपने साथ बिठाकर उन्हें सम्मानित किया। कोई मनुष्य पुण्य कर्मों से स्वर्गलोक पहुँच सकता है, जैसा कि सकाम कर्मों की श्रेणी में शास्त्रों का अभिमत है। जैसा कि भगवद्गीता (९.२१) में कहा गया है, जब ऐसे पुण्य कर्मों का फल क्षीण हो जाता है, तब भोक्ता को पुन: पृथ्वीलोक पर ला गिराया जाता है। चन्द्रमा भी, स्वर्गीय ग्रहों के समान स्तर पर है और जिन लोगों ने यज्ञ सम्पन्न करके, दान देकर तथा कठोर तपस्या करके पुण्य अर्जित किया है, उन्हें ही शरीर की आयु पूरी होने के बाद स्वर्गलोक में प्रविष्ट होने दिया जायेगा। अर्जुन को उसी शरीर में स्वर्ग में प्रविष्ट होने दिया गया जो केवल भगवत्कृपा का प्रसाद था, अन्यथा ऐसा होना सम्भव नहीं है। आधुनिक विज्ञानियों द्वारा स्वर्गलोक में प्रवेश करने के सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध होंगे, क्योंकि ऐसे विज्ञानी अर्जुन के समान स्तर पर नहीं हैं। वे तो सामान्य मनुष्य हैं, जो यज्ञ, दान या तप की निधि से विहीन हैं। यह भौतिक शरीर प्रकृति के तीन गुण—सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण से प्रभावित होता रहता है। आधुनिक प्रजा न्यूनाधिक रूप से रजोगुण तथा तमोगुण से प्रभावित है और इस प्रभाव के लक्षण उनके अत्यन्त कामुक तथा लोभी होने से प्रकट होते हैं। ऐसे पतित लोग मुश्किल से स्वर्गलोक पहुँच सकते हैं। स्वर्गलोक के ऊपर भी अन्य अनेक लोक भी हैं, जहाँ केवल सतोगुणी जीव ही पहुँच सकता है। इस ब्रह्माण्ड में, स्वर्ग तथा अन्य लोकों के निवासी अत्यन्त बुद्धिमान होते हैं— मनुष्यों से कई गुना अधिक और वे एक से एक बढक़र सतोगुणी होते हैं। वे सब भगवान् के भक्त होते हैं और यद्यपि उनका सत्त्वगुण विशुद्ध नहीं होता है, तो भी वे देवता कहलाते हैं, जिनमें इस भौतिक जगत में सम्भव अधिकतम मात्रा में सद्गुण पाये जाते हैं।

 
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