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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  1.15.13 
तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं
गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवा: ।
सेन्द्रा: श्रिता यदनुभावितमाजमीढ
तेनाहमद्य मुषित: पुरुषेण भूम्ना ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—उस स्वर्गलोक में; एव—निश्चय ही; मे—मैं स्वयं; विहरत:—अतिथि के रूप में रहते हुए; भुज-दण्ड-युग्मम्—अपनी दोनों भुजाओं को; गाण्डीव—गांडीव धनुष; लक्षणम्—चिह्न; अराति—निवातकवच नामक असुर; वधाय—मारने के लिए; देवा:—सारे देवता; —सहित; इन्द्रा:—स्वर्ग का राजा, इन्द्र; श्रिता:—शरण लेकर; यत्—जिसके; अनुभावितम्—शक्तिमान होने के लिए सम्भव; आजमीढ—हे राजा आजमीढ के वंशज; तेन—उसके द्वारा; अहम्—मैं; अद्य—इस समय; मुषित:— रहित; पुरुषेण—व्यक्ति से; भूम्ना—परम ।.
 
अनुवाद
 
 जब मैं स्वर्गलोक में अतिथि के रूप में कुछ दिन रुका रहा, तो इन्द्रदेव समेत स्वर्ग के समस्त देवताओं ने निवातकवच नामक असुर को मारने के लिए गाण्डीव धनुष धारण करनेवाली मेरी भुजाओं का आश्रय लिया था। हे आजमीढ के वंशज राजा, इस समय मैं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से विहीन हो गया हूँ, जिनके प्रभाव से मैं इतना शक्तिशाली था।
 
तात्पर्य
 स्वर्गलोक के देवता निश्चय ही अधिक बुद्धिमान, शक्तिमान तथा सुन्दर होते हैं, तो भी उन्हें अर्जुन से उनके गाण्डीव धनुष के कारण सहायता लेनी पड़ी, क्योंकि गाण्डीव धनुष भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से शक्ति-सम्पन्न था। भगवान् सर्वशक्तिमान हैं और उनकी कृपा से शुद्ध भक्त उनकी इच्छा के अनुसार शक्तिमान हो सकता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है। किन्तु जब भगवान् किसी से अपनी शक्ति वापस ले लेते हैं, तो वह भगवान् की इच्छा से शक्तिविहीन हो जाता है।
 
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