यो भीष्मकर्णगुरुशल्यचमूष्वदभ्र-
राजन्यवर्यरथमण्डलमण्डितासु ।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना-
मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत् ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
य:—केवल वे ही; भीष्म—भीष्म; कर्ण—कर्ण; गुरु—द्रोणाचार्य; शल्य—शल्य; चमूषु—व्यूह के मध्य; अदभ्र—विशाल; राजन्य-वर्य—बड़े-बड़े राजकुमार; रथ-मण्डल—रथों की शृंखला; मण्डितासु—अलंकृत; अग्रे चर:—आगे-आगे जाते हुए; मम—मेरा; विभो—हे राजा; रथ-यूथ-पानाम्—सारे रथी; आयु:—उम्र अथवा सकाम कर्म; मनांसि—मानसिक उथल-पुथल; च—भी; दृशा—चितवन से; सह:—शक्ति; ओज:—पराक्रम; आर्च्छत्—वापस ले लिया ।.
अनुवाद
एकमात्र वे ही थे जिन्होंने सबों की आयु छीन ली थी और जिन्होंने युद्धभूमि में भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य, इत्यादि कौरवों द्वारा निर्मित सैन्य-व्यूह की कल्पना तथा उत्साह को हर लिया था। उन सबकी योजना अत्यन्त पटु थी और आवश्यकता से अधिक थी, लेकिन उन्होंने (भगवान् श्रीकृष्ण ने) आगे बढक़र यह सब कर दिखाया।
तात्पर्य
भगवान् श्रीकृष्ण घट-घट व्यापी अपने परमात्मा-अंश से सभी के ह्रदय में विस्तार करते हैं और इस तरह स्मृति, विस्मृति, ज्ञान, बुद्धिहीनता तथा मनोवैज्ञानिक कार्यकलापों में सबों का निर्देशन करते हैं (भगवद्गीता १५.१५)। परमेश्वर होने के नाते, वे जीव की आयु को घटा-बढ़ा सकते हैं। इस तरह भगवान् ने अपनी योजना के अनुसार कुरुक्षेत्र-युद्ध का संचालन किया। वे इस युद्ध को इसलिये कराना चाह रहे थे, जिससे वे युधिष्ठिर को इस लोक का सम्राट बना सकें। इस दिव्य कार्य को सुगम बनाने के लिये उन्होंने अपनी परम शक्तिमान इच्छा से विरोधी पक्ष के उन सभी लोगों को मार डाला। विरोधी पक्ष में भीष्म, द्रोण तथा शल्य जैसे महान् सेनापति थे, अतएव उस युद्ध में यदि भगवान् ने सब प्रकार की युक्तियों से सहायता न की होती, तो अर्जुन का जीतना असम्भव था। सामान्यतया ऐसी युक्तियाँ आधुनिक राजनीति में भी सभी नीतिज्ञों द्वारा अपनायी जाती हैं, लेकिन ये सब भौतिक शक्तिशाली गुप्तचरी, सैन्य-निपुणता तथा राजनयिक दाँव-पेंच द्वारा सम्पन्न की जाती हैं। चूँकि अर्जुन भगवान् के प्रिय भक्त थे, अतएव भगवान् ने स्वयं यह सब किया, अर्जुन को इसकी चिन्ता नहीं करनी पड़ी। भगवान् की भक्तिमय सेवा की विधि ऐसी होती है।
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