प्रह्लाद महाराज नृसिंह-देव के परम भक्त थे। उनकी कथा श्रीमद्भागवत के सातवें स्कन्ध में दी गई है। प्रह्लाद महाराज अभी पाँच वर्ष के नन्हे बालक ही थे कि वे अपने महान् पिता हिरण्यकशिपु के क्रोध के पात्र बने, क्योंकि वे भगवान् के शुद्ध भक्त थे। असुर पिता ने अपने भक्त पुत्र प्रह्लाद को मारने के लिए सभी हथियारों को आजमाया, लेकिन भगवान् की कृपा से वे अपने पिता की सभी घातक कार्यवाहियों से बचते गये। उन्हें जलती अग्नि में, उबलते तेल में, पर्वत की चोटी से नीचे, हाथी के पाँव के नीचे फेंका गया और उन्हें विष भी दिया गया। अन्त में पिता ने अपने पुत्र को मारने के लिए गँड़ासा उठाया, तो नृसिंह देव प्रकट हुए और उस जघन्य पिता का पुत्र के समक्ष वध कर दिया। इस तरह भगवान् के भक्त को कोई नहीं मार सकता। इसी प्रकार अर्जुन को भी भगवान् ने बचाया, यद्यपि उन्हें मारने के लिए भीष्म जैसे महान् प्रतिद्वन्द्वी द्वारा सभी घातक हथियार छोड़े गये थे। कर्ण—ये कुन्ती के पुत्र थे, जो महाराज पाण्डु से विवाह होने के पूर्व सूर्यदेव से प्राप्त हुए थे। कर्ण का जन्म हाथ के कड़े तथा कान के कुण्डल सहित हुआ था, जो दुर्दम वीर के असामान्य लक्षण थे। प्रारम्भ में उसका नाम वसुसेन था, लेकिन जब वह बड़ा हुआ तो उसने अपने प्राकृतिक कड़े तथा कुण्डल इन्द्रदेव को भेंट कर दिये और उसके बाद वैकर्तन कहलाया। कुमारी कुन्ती ने जन्म देने के बाद, उसे गंगा नदी में फेंक दिया गया था। बाद में अधिरथ ने उसे उठा लिया और उसने तथा उसकी पत्नी राधा ने उसे अपनी सन्तान की तरह पाला-पोसा। कर्ण अत्यन्त दानी था, विशेषत: ब्राह्मणों के प्रति। ब्राह्मणों को दान देते समय, वह अपना सर्वस्व देने को प्रस्तुत रहता था। इसी दानी भावना से उसने अपने कड़े तथा कुण्डल इन्द्रदेव को दे दिये थे, जिससे वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने बदले में शक्ति नाम का महान् अस्त्र प्रदान किया। उसकी द्रोणाचार्य के शिष्य-रूप में भर्ती हुई थी और प्रारम्भ से ही उसमें तथा अर्जुन में स्पर्धा चलती थी। अर्जुन से उसकी निरन्तर स्पर्धा देखकर ही दुर्योधन ने उसे अपना संगी बना लिया था और क्रमश: उनमें प्रगाढ़ मैत्री हो गई। वह द्रौपदी के स्वयंवर में भी उपस्थित था और जब उस सभा में उसने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना चाहा, तो द्रौपदी के भाई ने घोषणा की कि कर्ण उस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकता, क्योंकि वह शूद्र बढ़ई का पुत्र था। यद्यपि उसे उस प्रतियोगिता में भाग लेने नहीं दिया गया, किन्तु जब अर्जुन मत्स्य-भेद में सफल रहा और द्रौपदी ने अर्जुन को माला पहना दी, तो कर्ण तथा हारे हुए राजकुमारों ने द्रौपदी-सहित जाते हुए अर्जुन के लिए असामान्य रूकावट खड़ी की। विशेष रूप से कर्ण उनसे बहादुरी से लड़ा, किन्तु वे सभी अर्जुन द्वारा परास्त हुए। दुर्योधन कर्ण से अत्यधिक प्रसन्न था, क्योंकि अर्जुन से उसकी निरन्तर स्पर्धा चलती रहती थी और जब दुर्योधन राजा बना तो उसने कर्ण को अंगराज्य का राजा बना दिया। द्रौपदी को जीतने का प्रयास असफल होने से कर्ण ने दुर्योधन को सलाह दी कि राजा द्रुपद पर हमला कर दिया जाये, क्योंकि उसे हराकर द्रौपदी तथा अर्जुन दोनों को बन्दी बनाया जा सकता था। लेकिन द्रोणाचार्य ने इस षड्यंत्र के लिए उनको फटकारा। फलत: वे इस कार्य से विरत हो गये। कर्ण, कई बार हारा था, न केवल अर्जुन से, अपितु भीमसेन से भी। वह बंगाल, उड़ीसा तथा मद्रास के सम्मिलित राज्य का राजा था। बाद में उसने महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सक्रिय भाग लिया और जब शकुनि द्वारा सुझाये जाने पर प्रतिद्वन्द्वी बन्धुओं में जुआ खेला गया, तो कर्ण ने उसमें भाग लिया और जब द्रौपदी दाँव पर चढ़ गई, तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ था। इससे उसके पुराने वैर का शोधन हुआ। जब द्रौपदी को दाँव पर लगाया गया, उसने ही अत्यन्त प्रोत्साहित होकर इसकी सूचना दी और उसने ही पाण्डवों तथा द्रौपदी को निर्वस्त्र करने के लिए दुस्शासन को आज्ञा दी। उसने द्रौपदी से दूसरा पति चुनने को कहा, क्योंकि पाण्डवों के द्वारा हारी जाने से वह कुरुओं की दासी बन चुकी थी। वह पाण्डवों का स्थायी दुश्मन बना रहा और जब-जब अवसर मिलता रहा, वह उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करता रहा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में उसने पहले ही परिणाम जान लिया था और उसने अपना अभिमत व्यक्त किया था कि अर्जुन के सारथी के रूप में, कृष्ण के होने से, यह युद्ध अर्जुन द्वारा जीता जायेगा। वह भीष्म का सदैव विरोध करता रहा और कभी-कभी गर्वित होकर कहता कि यदि भीष्म उसकी योजना में दखल न दें, तो वह पाण्डवों को पाँच दिनों में जीत सकता है। लेकिन जब भीष्म की मृत्यु हुई, तब वह अत्यन्त दु:खी हुआ। उसने इन्द्र से प्राप्त हुए शक्ति अस्त्र द्वारा घटोत्कच का वध किया। अर्जुन ने उसके पुत्र वृषसेन का वध किया उसने सर्वाधिक पाण्डव सैनिकों को मारा था। अन्त में अर्जुन से उसका घनघोर युद्ध हुआ, और वह अकेल ही ऐसा था, जिसने युद्ध में अर्जुन के मुकुट को मार गिराया था। लेकिन ऐसा हुआ कि उसके रथ का पहिया युद्धभूमि के कीचड़ में फँस गया और जब वह उस पहिये को ठीक करने रथ से नीचे उतरा, तो उसके मना करने पर भी अर्जुन ने उसे मार डाला।
नप्ता अथवा भूरिश्रवा—भूरिश्रवा कुरुवंशी सोमदत्त का पुत्र था। शल्य उसका भाई था। दोनों भाई तथा पिता द्रौपदी-स्वयंवर में गये थे। इन सबों ने भगवान् के भक्त-मित्र होने के कारण, अर्जुन की अद्भुत शक्ति की प्रसंशा की थी और भूरिश्रवा ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को सलाह दी थी कि वे उनसे झगड़ा मोल न लें अथना युद्ध न करें। इन सबों ने महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी भाग लिया। उसके पास एक अक्षौहिणी सेना थी जिसमें पैदल सिपाही, घुड़सवार, हाथी और रथ शामिल थे और यह सेना दुर्योधन की ओर से कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़ी थी। भीम उसे यूथपतियों में से एक मानते थे। कुरुक्षेत्र के युद्ध में वह विशेष तौर पर सात्यकी से लड़ा था और उसने सात्यकी के दस पुत्रों को मार डाला था। बाद में अर्जुन ने उसके हाथ काट दिये तब सात्यकी ने उसे मार डाला। मृत्यु के बाद वह विश्वदेव में समा गया।
त्रिगर्त अथवा सुशर्मा—यह महाराज वृद्धक्षेत्र का पुत्र तथा त्रिगर्त देश का राजा था और वह भी द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था। यह दुर्योधन का मित्र था और इसने दुर्योधन को मत्स्यदेश (दरभंगा) पर आक्रमण करने की सलाह दी थी। विराट नगर में गायों को चुराते समय, वह महाराज विराट को बन्दी बना ने में सफल हुआ था, लेकिन बाद में भीम ने महाराज विराट को छुड़ा लिया था। कुरुक्षेत्र युद्ध के में भी वह वीरतापूर्वक लड़ा, किन्तु अन्त में अर्जुन द्वारा मारा गया।
जयद्रथ—यह महाराज वृद्धक्षेत्र का ही एक अन्य पुत्र था। यह सिन्धुदेश (आधुनिक सिंध जो पाकिस्तान में है) का राजा था। इसकी पत्नी का नाम दु:शला था। यह भी द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था और उससे विवाह करने के लिए बहुत उत्सुक था, किन्तु प्रतियोगिता में असफल रहा। किन्तु तब से वह हमेशा द्रौपदी के निकट आने के फेर में रहा करता था। जब वह अपना विवाह करने शल्यदेश जा रहा था, तो उसने रास्ते में काम्यवन में उसने एक बार फिर द्रौपदी को देखा और वह उसके प्रति अत्यधिक आकर्षित हो गया था। तब अपना राज्य जुए में हारकर पाण्डव तथा द्रौपदी वनवास में थे और तब जयद्रथ ने अपने संगी कोटिशष्य के द्वारा, अनुचित तरीके से द्रौपदी के पास सन्देश भेजा। द्रौपदी ने तुरन्त ही जयद्रथ के प्रस्ताव को बड़ी बुरी तरह ठुकरा दिया था, किन्तु द्रौपदी के सौन्दर्य के प्रति वह इतना आकर्षित था कि वह बारम्बार प्रयास करता रहा और हर बार द्रौपदी ने उसे ठुकरा दिया। उसने द्रौपदी को जबरन रथ पर बैठाना चाहा, लेकिन द्रौपदी ने उसे ऐसी पटकनी दी कि वह कटे हुए वृक्ष की तरह धराशायी हो गया। लेकिन वह हतोत्साहित नहीं हुआ और द्रौपदी को जबरन रथ पर बिठाने में सफल रहा। धौम्य मुनि ने यह घटना देखी तो उन्होंने जयद्रथ के इस कार्य का तीव्र विरोध किया। उन्होंने रथ का पीछा भी किया और धात्रेयिका के द्वारा इसकी जानकारी महाराज युधिष्ठिर तक पहुँचाई। तब पाण्डवों ने आक्रमण करके उसके सारे सैनिकों को मार डाला और अन्त में भीमसेन ने जयद्रथ को पकडक़र उसकी जमकर पिटाई की ओर वह लगभग मरा सा हो गया। फिर उसके पाँच बाल छोडक़र सिर के सारे बाल काट लिये गये और समस्त राजाओं के समक्ष लाकर, महाराज युधिष्ठिर के दास के रूप में, परिचय कराया गया। उसे सभी राजकुमारों के समक्ष अपने को महाराज युधिष्ठिर का दास स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया और उसे उसी अवस्था में महाराज युधिष्ठिर के सम्मुख लाया गया। महाराज युधिष्ठिर ने दयालु होकर उसे छोडऩे का आदेश दिया और जब उसने त्रिगर्त राजकुमार को महाराज के अधीन बनाने के लिए आत्म-स्वीकृति कर ली, तो महारानी द्रौपदी ने भी उसको मुक्त करने की इच्छा व्यक्त कर दी। इस घटना के बाद उसे अपने देश जाने दिया गया। इस प्रकार अपमानित होने के बाद, वह हिमालय पर्वत पर गंगोत्री चला गया और उसने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। उसने पाँचों पाण्डवों को कम से कम एक-एक करके हराने का वर माँगा। तत्पश्चात जब कुरुक्षेत्र-युद्ध प्रारम्भ हुआ, तो उसने दुर्योधन का पक्ष लिया। पहले दिन उसने महाराज द्रुपद से, फिर विराट से और तब अभिमन्यु से युद्ध किया। जब अभिमन्यु को सात महान् सेनापति घेरकर निर्दयतापूर्वक मार रहे थे, तो पाण्डव उसकी सहायता करने के लिए पहुँचे, किन्तु जयद्रथ ने शिवजी की कृपा से अपनी शक्ति से उन्हें पीछे हटा दिया। इस पर अर्जुन ने उसका वध करने की प्रतिज्ञा की। यह सुनकर जयद्रथ ने युद्धस्थल छोडक़र भागना चाहा और कौरवों से इसकी अनुमति माँगी, किन्तु उसे ऐसा नहीं करने दिया गया। उल्टे उसे अर्जुन से युद्ध करने के लिए विवश किया गया और जब युद्ध चल रहा था, तो भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को याद दिलाई कि जयद्रथ को शिवजी का यह वरदान प्राप्त है कि जो भी उसका सिर धरती पर गिराएगा, वह तुरन्त मर जायेगा। अतएव उन्होंने अर्जुन को सलाह दी कि वे जयद्रथ के सिर को सीधे उसके पिता की गोद में गिराये, जो समन्तपंचक तीर्थ में तप कर रहा था। अर्जुन ने वास्तव में ऐसा ही किया। जयद्रथ का पिता पुत्र के कटे हुए सिर को अपनी गोद में देखकर अचम्भिंत हो उठा। अतएव उसने तुरन्त ही उस सिर को भूमि पर फेंक दिया। उसके पिता का सिर सात खण्डों में विभक्त हो गया और वह तुरन्त मर गया।