सौत्ये वृत: कुमतिनात्मद ईश्वरो मे
यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्या: ।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं
न प्राहरन् यदनुभावनिरस्तचित्ता: ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
सौत्ये—सारथी के विषय में; वृत:—लगा हुआ; कुमतिना—बुरी चेतना के कारण; आत्म-द:—उद्धार करनेवाला; ईश्वर:— परमेश्वर; मे—मेरा; यत्—जिसको; पाद-पद्मम्—चरणकमल को; अभवाय—मोक्ष के मामले में; भजन्ति—सेवा करते हैं; भव्या:—बुद्धिमान पुरुष; माम्—मुझको; श्रान्त—प्यासा; वाहम्—मेरे घोड़े; अरय:—शत्रु; रथिन:—महान् सेनापति; भुवि ष्ठम्—भूमि पर खड़े हुए; न—नहीं; प्राहरन्—आक्रमण किया; यत्—जिसकी; अनुभाव—कृपा; निरस्त—अनुपस्थित होने से; चित्ता:—मन ।.
अनुवाद
यह उन्हीं की कृपा थी कि जब मैं अपने प्यासे घोड़ों के लिए जल लेने रथ से नीचे उतरा था, तो मेरे शत्रुओं ने मुझे मारने की परवाह न की। यह तो अपने प्रभु के प्रति मेरा असम्मान ही था कि मैंने उन्हें अपना सारथी बनाने का दुस्साहस किया, क्योंकि मोक्ष प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठ पुरुष उनकी पूजा तथा सेवा करते हैं।
तात्पर्य
भगवान् श्रीकृष्ण निर्विशेषवादियों तथा भगवद्भक्तों दोनों के द्वारा समान रूप से आराध्य हैं। निर्विशेषवादी उनके जाज्वल्यमान तेज की पूजा करते हैं, जो सच्चिदानन्द-स्वरूप दिव्य देह से उद्भासित होता रहता है और भक्तगण पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् के रूप में उनकी पूजा करते हैं। जो लोग निर्विशेषवादियों से भी नीचे के हैं, वे उन्हें महान् ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। किन्तु भगवान् तो अपनी विशिष्ट दिव्य लीलाओं के द्वारा सबों को आकृष्ट करने के लिए अवतरित होते हैं और इस तरह वे पूर्ण स्वामी, मित्र, पुत्र तथा प्रेमी की भूमिका निभाते हैं। अर्जुन से उनका दिव्य सम्बन्ध मित्र (सख्य) भावका था, अतएव उन्होंने अपनी भूमिका पूरी तरह निभाई, जिस तरह उन्होंने अपने माता-पिता, प्रेमिकाओं तथा पत्नियों के साथ किया था। इस तरह के पूर्ण दिव्य भाव में भक्त, भगवान् की अन्तरंगा शक्ति के कारण यह भूल जाता है कि उसका मित्र या पुत्र पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् है, यद्यपि भक्त भी कभी-कभी भगवान् के कार्यों से मोहग्रस्त हो जाता है। भगवान् के प्रयाण के बाद अर्जुन को अपने परम मित्र का बोध था, लेकिन इस विषय में अर्जुन कोई गलती नहीं कर रहा था और न ही उसे भगवान् के विषय में कोई भ्रान्त धारणा थी। बुद्धिमान व्यक्ति अर्जुन जैसे शुद्ध अनन्य भक्तों के प्रति भगवान् की दिव्य करनी के द्वारा आकृष्ट होते हैं।
युद्धभूमि में जल का अभाव सर्वविदित तथ्य है। जल वहाँ दुर्लभ रहता है। और पशु तथा मनुष्य, दोनों ही युद्धक्षेत्र में निरन्तर श्रम करते रहने से प्यासे हो उठते हैं और प्यास बुझाने के लिए जल की आवश्यकता पड़ती है। विशेष रूप से, घायल सैनिक तथा सेनापति मृत्यु के समय अत्यधिक प्यासे हो उठते हैं और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जल न मिलने के कारण ही विवश होकर मृत्यु हो जाती है। लेकिन कुरुक्षेत्र के युद्ध में पानी के अभाव को भूमि का बेधन करके पूरा किया गया। भगवान् की कृपा से किसी भी स्थान को बेध करके जल आसानी से प्राप्त किया जा सकता था, यदि वहाँ बेधन करने की सुविधा हो। आधुनिक प्रणाली भी भूमि के बेधन के सिद्धान्त पर कार्य करती है। फिर भी आज के इंजीनियर, आवश्यकता पडऩे पर तुरन्त खुदाई करने में समर्थ नहीं हो पाते। लेकिन इतिहास से पता चलता है कि पाण्डवों के काल में अर्जुन जैसे बड़े-बड़े सेनानायक घोड़ों तक को तुरन्त जल पिला सकते थे—मनुष्यों की तो बात ही क्या? वे तीक्ष्ण बाण से पृथ्वी की कठोर सतह को भेदकर ही नीचे से जल निकाल सकते थे। यह विधि आधुनिक विज्ञानियों को आज भी अज्ञात है।
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