वासुदेवाङ्घ्र्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा ।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायधिषणोऽर्जुन: ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
वासुदेव-अङ्घ्रि—भगवान् के चरणकमल; अनुध्यान—निरन्तर स्मरण करने से; परिबृंहित—विस्तीर्ण; रंहसा—अत्यन्त वेग से; भक्त्या—भक्ति से; निर्मथित—शान्त हुआ; अशेष—असीम; कषाय—प्रहार; धिषण:—धारणा; अर्जुन:—अर्जुन ।.
अनुवाद
अर्जुन द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का निरन्तर स्मरण किये जाने से उसकी भक्ति तेजी से बढ़ गई, जिसके फलस्वरूप उसके विचारों का सारा मैल दूर हो गया।
तात्पर्य
मन की भौतिक इच्छाएँ भौतिक कल्मष के कूड़ा-करकट के समान हैं। ऐसे कल्मष से जीव को अनेक ग्राह्य तथा अग्राह्य वस्तुओं का सामना करना होता है, जो आध्यात्मिक स्वरूप के अस्तित्व को ही हतोत्साहित कर देती है। बद्धजीव जन्म-जन्मांतर तक अनेक रुचिकर तथा अरुचिकर तत्त्वों में फँसा रहता है, जो मिथ्या तथा क्षणिक होते हैं। वे हमारी भौतिक इच्छाओं की प्रतिक्रियास्वरूप एकत्र होते रहते हैं, किन्तु जब हम भक्तिमय सेवा के द्वारा दिव्य भगवान् की विभिन्न शक्तियों के सम्पर्क में आते हैं, तो सारी इच्छाओं के नग्न रूप प्रकट होते हैं और जीव की बुद्धि सही अर्थ में शान्त हो जाती है। ज्योंही अर्जुन ने भगवद्गीता में दिये गये उपदेशों की ओर अपना ध्यान मोड़ा, त्योंही भगवान् के साथ नित्य संगति का असली रंग प्रकट हुआ और इस तरह उसे सारे भौतिक कल्मषों से मुक्ति का आभास हुआ।
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