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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  1.15.3 
कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुच: पाणिनामृज्य नेत्रयो: ।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातर: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
कृच्छ्रेण—बड़ी कठिनाई से; संस्तभ्य—वेग को रोककर; शुच:—विरह के; पाणिना—अपने हाथों से; आमृज्य—पोंछते हुए; नेत्रयो:—आँखों को; परोक्षेण—दृष्टि से दूर होने के कारण; समुन्नद्ध—अत्यधिक; प्रणय-औत्कण्ठ्य—स्नेह का उत्सुकतापूर्वक स्मरण करते हुए; कातर:—व्याकुल ।.
 
अनुवाद
 
 उसने बड़ी कठिनाई से आँखों में भरे हुए शोकाश्रुओं को रोका। वह अत्यन्त दुखी था, क्योंकि भगवान् कृष्ण उसकी दृष्टि से ओझल थे और वह उनके लिए अधिकाधिक स्नेह का अनुभव कर रहा था।
 
 
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