बद्धजीव शाश्वतकाल के प्रभाव से अपने सकाम कर्मों में लिपटा हुआ रहता है। किन्तु जब परमेश्वर इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, तो वे काल द्वारा—भूत, वर्तमान तथा भविष्य की भौतिक धारणा द्वारा—प्रभावित नहीं होते। भगवान् के कार्यकलाप शाश्वत हैं और वे उनकी आत्म-माया या अन्तरंगा शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं। भगवान् की सारी लीलाएँ या कार्यकलाप आध्यात्मिक हैं, किन्तु अबूझ लोगों को ये भौतिक कार्यकलापों जैसे दिखते हैं। ऐसा लगता है कि अर्जुन तथा भगवान् कृष्ण दूसरे पक्ष की ही तरह युद्ध में लगे थे, किन्तु वास्तव में भगवान् अपने अवतार के उद्देश्य को तथा अपने शाश्वत सखा अर्जुन की संगति को पूरा कर रहे थे। अतएव ऊपर से भौतिक लगनेवाले अर्जुन के ये कार्यकलाप उसे उसकी दिव्य स्थिति से दूर नहीं ले गये, अपितु इसके विपरीत उसे भगवद्गीता की उसकी चेतना का पुन:स्मरण दिलाया जैसे भगवान् ने उसे स्वयं सुनाया था। चेतना की इस पुन: जागृति का आश्वासन भगवान् ने भगवद्गीता (१८.६५) में इस प्रकार दिया है— मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
मनुष्य को चाहिए कि वह निरन्तर भगवान् का चिन्तन करे; मन से उन्हें भूले नहीं। मनुष्य को भगवद्भक्त बनकर उनको नमस्कार करना चाहिए। जो इस तरह रहता है, उसे भगवान् के चरणकमलों में शरण प्राप्त होने पर भगवान् का आशीष प्राप्त होता है। इस चिरन्तन सत्य के विषय में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। चूँकि अर्जुन उनका विश्वासपात्र तथा मित्र था, अतएव उससे यह रहस्य प्रकट किया गया।
अर्जुन को अपने सम्बन्धियों से युद्ध करने की कोई इच्छा नही थी, लेकिन उसने भगवान् के ध्येय के कारण युद्ध किया। वह सदा उनके ध्येय की ही पूर्ति में लगा रहा, अतएव भगवान् के प्रयाण के बाद वह उसी दिव्य स्थिति में रहा, यद्यपि ऐसा लग रहा था कि वह भगवद्गीता के सारे उपेदशों को भूल गया है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन के कार्यकलापों और भगवान् के ध्येय में तालमेल पैदा करे। ऐसा करने से उसका भगवद्धाम लौटना निश्चित है। यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।