विशोको ब्रह्मसम्पत्त्या सञ्छिन्नद्वैतसंशय: ।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिङ्गत्वादसम्भव: ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
विशोक:—शोक से रहित; ब्रह्म-सम्पत्त्या—आध्यात्मिक सम्पत्ति के अधिकारी होने से; सञ्छिन्न—पूर्ण रूप से कटकर; द्वैत संशय:—द्वैत के संशय से; लीन—संलग्न; प्रकृति—भौतिक प्रकृति; नैर्गुण्यात्—अध्यात्म में रहने से; अलिङ्गत्वात्—भौतिक शरीर से विहीन होने के कारण; असम्भव:—जन्म तथा मृत्यु से मुक्त ।.
अनुवाद
आध्यात्मिक सम्पत्ति से युक्त होने के कारण उसके द्वैत के संशय पूर्ण रूप से छिन्न हो गये। इस तरह वह भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से मुक्त होकर अध्यात्म में स्थित हो गया। अब जन्म तथा मृत्यु के पाश में उसके फँसने की कोई आशंका न थी, क्योंकि वह भौतिक रूप से मुक्त हो चुका था।
तात्पर्य
द्वैत के संशय देहात्म-बुद्धि की गलत धारणा से प्रारम्भ होते हैं, क्योंकि अल्पज्ञ लोग शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं। हमारी अज्ञानता का सबसे मूर्खतापूर्ण अंश यह है कि हम इस भौतिक शरीर को ही आत्मा के रुप में पहचानने लगते हैं। अज्ञानवश, शरीर से सम्बद्ध प्रत्येक वस्तु को अपनी निजी मान लिया जाता है। “मैं और मेरा” की भ्रान्तधारणा से उत्पन्न संशय—दूसरे शब्दों में, “मेरा शरीर,” “मेरे सम्बन्धी,” “मेरी सम्पत्ति,” “मेरी पत्नी,” “मेरी सन्तान,” “मेरा धन,” “मेरा देश,” “मेरा समाज” तथा इस प्रकार के सैकड़ों-हजारों भ्रामक विचार बद्धजीव के लिए मोह उत्पन्न करनेवाले होते हैं। किन्तु भगवद्गीता के उपदेशों को आत्मसात् करने से मनुष्य निश्चित रूप से ऐसे मोह से छुटकारा पा सकता है, क्योंकि वास्तविक ज्ञान यह जान लेना है कि भगवान् वासुदेव या भगवान् कृष्ण ही सब कुछ हैं, जिसमें अपना आत्मा भी सम्मिलित है। प्रत्येक वस्तु उनकी शक्ति की आंशिक अभिव्यक्ति है। शक्ति तथा शक्तिमान अभिन्न हैं, अतएव पूर्ण ज्ञान के प्राप्त होते ही द्वैत का भाव समाप्त हो जाता है। ज्योंही अर्जुन ने भगवद्गीता के उपदेशों को ग्रहण किया, जिसमें वह दक्ष था, त्योंही उसके शाश्वत-सखा भगवान् कृष्ण के सम्बन्ध में उसका भौतिक बोध मिट गया। उसे यह अनुभव हुआ कि भगवान् अपने उपदेश के द्वारा अपने रूप, लीलाओं, गुणों इत्यादि के द्वारा अब भी उसके समक्ष उपस्थित हैं। वह अनुभव कर सका कि उसके मित्र भगवान् कृष्ण विभिन्न अद्वैत शक्तियों में अपनी दिव्य उपस्थिति के कारण अब भी उसके समक्ष उपस्थित थे और देश-काल के प्रभाव के अन्तर्गत शरीर के अन्य परिवर्तन के द्वारा भगवान् की संगति को प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं था। परम ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य इसी जीवन में भी भगवान् की निरन्तर संगति में रह सकता है, यदि वह केवल परमेश्वर का श्रवण, कीर्तन, चिन्तन तथा पूजन करे। इसी जीवन में मनुष्य उन्हें देख सकता है, उनकी उपस्थिति का अनुभव कर सकता है यदि वह केवल भक्तियोग द्वारा, जो कि उनका श्रवण करने से प्रारम्भ होता है, अद्वयज्ञान भगवान् को जान ले। भगवान् चैतन्य कहते हैं कि केवल भगवन्नाम-कीर्तन से ही शुद्ध चेतना के दर्पण की धूल को हटाया जा सकता है और इस धूल के हटते ही मनुष्य तत्काल समस्त भौतिक बन्धनों से छूट जाता है। भौतिक बन्धनों से मुक्त होने का अर्थ है, आत्मा को मुक्त करना। अतएव ज्योंही मनुष्य परम ज्ञान में स्थित होता है, त्योंही उसकी देहात्मबुद्धि दूर हो जाती है या वह जीवन के मिथ्याबोध से उबर जाता है। इस प्रकार आध्यात्मिक अनुभूति में शुद्ध आत्मा का कार्य फिर से चालू हो जाता है। जीव की यह व्यावहारिक अनुभूति, प्रकृति के तीनों गुणों—सतो, रजो तथा तमो गुणों से उसके मुक्त होने पर सम्भव हो पाती है। भगवत्कृपा से शुद्ध भक्त तुरन्त भगवद्धाम को चला जाता है और भक्त की पुन: बद्ध जीवन में फँसने की कोई संभावना नहीं रह जाती। जब तक मनुष्य में प्रामाणिक शास्त्रों द्वारा नियत की गई भक्तिमय सेवा के द्वारा आवश्यक आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक उसे भगवान् की उपस्थिति का अनुभव नहीं हो पाता। अर्जुन को यह अवस्था कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में बहुत ही पहले प्राप्त हो चुकी थी, अतएव ज्योंही उसे भगवान् की अनुपस्थिति का अनुभव हुआ कि तुरन्त ही उसने भगवद्गीता के उपदेशों का आश्रय लिया की और इस तरह वह अपनी मूल स्थिति को फिर से प्राप्त हो सका। यह विशोक की अवस्था अर्थात् समस्त शोक तथा चिन्ता से मुक्त होने की अवस्था है।
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