श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  1.15.32 
निशम्य भगवन्मार्गं संस्थां यदुकुलस्य च ।
स्व:पथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्ठिर: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
निशम्य—कहकर; भगवत्—भगवान् के विषय में; मार्गम्—भगवान् के प्रकट तथा अप्रकट होने के रास्ते; संस्थाम्—अन्त; यदु-कुलस्य—राजा यदु के वंश का; च—भी; स्व:—भगवान् का धाम; पथाय—रास्ते में; मतिम्—इच्छा; चक्रे—ध्यान दिया; निभृत-आत्मा—अकेले, एकान्त; युधिष्ठिर:—राजा युधिष्ठिर ने ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् कृष्ण के स्वधाम गमन को सुनकर तथा यदुवंश के पृथ्वी के अस्तित्व का अन्त समझकर, महाराज युधिष्ठिर ने भगवद्धाम जाने का निश्चय किया।
 
तात्पर्य
 इस संसार के लोगों की दृष्टि से भगवान् के दूर चले जाने की खबर सुनकर, महाराज युधिष्ठिर ने भी अपना ध्यान भगवद्गीता के उपदेशों की ओर मोड़ा। वे भगवान् के प्राकट्य तथा प्रयाण की विधि के विषय में सोचने लगे। इस मर्त्य ब्रह्माण्ड में भगवान् के प्रकट होने तथा उनके अन्तर्धान होने का उद्देश्य पूर्ण रूप से भगवान् की परम इच्छा पर निर्भर करता है। वे किसी उच्चतर शक्ति द्वारा प्रकट या अप्रकट होने केक लिए बाध्य नहीं हैं, जिस प्रकार जीव भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा प्रकट या अप्रकट होने के लिए बाध्य होते हैं। जब भी भगवान् चाहते हैं, वे कहीं भी और सर्वत्र प्रकट हो सकते हैं। इससे किसी अन्य स्थान पर उनके प्राकट्य तथा तिरोधान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे सूर्य के समान हैं। सूर्य स्वेच्छा से किसी स्थान पर उदय और अस्त होता है, किन्तु इससे अन्य स्थानों पर उसकी उपस्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सूर्य पश्चिम गोलार्ध में अस्त हुए बिना भारत में प्रात:काल उदय होता है। सूर्य पूरे सौर मण्डल में सर्वत्र उपस्थित रहता है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि किसी एक स्थान में सूर्य निश्चित समय पर प्रात: उदय होता है और शाम को निश्चित समय पर अस्त होता है। जब सूर्य के लिए समय की सीमा कोई अर्थ नहीं रखती, तो फिर परमेश्वर के विषय में क्या कहा जाय, जो सूर्य के भी स्रष्टा तथा नियामक हैं। अतएव भगवद्गीता में कहा गया है कि जो कोई भगवान् की अचिन्त्य शक्ति के द्वारा उनके दिव्य प्राकट्य तथा तिरोधान को वास्तव में समझ लेता है, वह जन्म- मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है और चिन्म्य आकाश में स्थित हो जाता है, जहाँ पर वैकुण्ठ के ग्रह हैं। वहाँ पर ऐसे मुक्त व्यक्ति जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग के भय से रहित होकर शाश्वत रूप से रह सकते हैं। आध्यात्मिक आकाश में भगवान् तथा उनकी दिव्य प्रेममयी सेवा में निरन्तर लगे रहनेवाले सारे लोग सदैव तरुण बने रहते हैं, क्योंकि वहाँ न बुढ़ापा है, न रोग और न मृत्यु। चूँकि वहाँ मृत्यु नहीं होती, अतएव वहाँ जन्म भी नहीं होता। इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि एकमात्र भगवान् के प्राकट्य तथा तिरोधान को समझ लेने पर मनुष्य जीवन की सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है। अतएव महाराज युधिष्ठिर भी भगवद्धाम वापस जाने के विषय में सोचने लगे। भगवान् पृथ्वी पर या अन्य किसी लोक में अपने पार्षदों के साथ प्रकट होते हैं, जो उनके साथ नित्य निवास करते हैं और यदुवंश के सारे सदस्य जो भगवान् की लीलाओं में सहायक बने रहे, उनके पार्षद ही थे। उसी तरह महाराज युधिष्ठिर, उनके भाई तथा उनकी माता इत्यादि भी उनके नित्य पार्षद ही थे। चूँकि भगवान् तथा उनके पार्षदों का प्राकट्य तथा तिरोधान दिव्य होता है, अतएव प्राकट्य तथा तिरोधान के बाह्य लक्षणों से किसी को मोहग्रस्त नहीं होना चाहिए।
 
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