श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  1.15.33 
पृथाप्यनुश्रुत्य धनञ्जयोदितं
नाशं यदूनां भगवद्गतिं च ताम् ।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे
निवेशितात्मोपरराम संसृते: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
पृथा—कुन्ती ने; अपि—भी; अनुश्रुत्य—सुनकर; धनञ्जय—अर्जुन द्वारा; उदितम्—कथित; नाशम्—अन्त; यदूनाम्—यदुवंश का; भगवत्—भगवान् का; गतिम्—तिरोधान; च—भी; ताम्—उन सबको; एक-अन्त—अनन्य; भक्त्या—भक्ति से; भगवति—भगवान् श्रीकृष्ण में; अधोक्षजे—अध्यात्म में; निवेशित-आत्मा—पूर्ण मनोयोग से; उपरराम—मुक्त हो गयी; संसृते:—भौतिक अस्तित्व से ।.
 
अनुवाद
 
 अर्जुन द्वारा यदुवंश के नाश तथा भगवान् कृष्ण के अन्तर्धान होने की बात सुनकर, कुन्ती ने पूर्ण मनोयोग से दिव्य भगवान् की भक्ति में अपने को लगा दिया और इस तरह संसार के आवागमन से मोक्ष प्राप्त किया।
 
तात्पर्य
 सूर्य के अस्त होने का यह अर्थ नहीं होता कि सूर्य का अन्त हो गया है। इसका अर्थ यह है कि सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल हो गया है। इसी प्रकार किसी विशेष लोक या ब्रह्माण्ड में भगवान् के कार्य के अन्त का अर्थ केवल इतना ही होता है कि वे हमारी दृष्टि से ओझल हो गये हैं। युदवंश के अन्त का यह भी अर्थ नहीं है कि उसका विनाश हो गया। वह भगवान् के साथ हमारी दृष्टि से अप्रकट हो जाता है। जिस तरह महाराज युधिष्ठिर ने भगवद्धाम जाने का निश्चय कर लिया, उसी तरह कुन्ती ने भी किया। अतएव वे भगवान् की दिव्य भक्ति में लग गईं, जिसमें वर्तमान भौतिक इस शरीर को त्यागने के बाद भगवद्धाम जाने के लिए प्रवेश-पत्र निश्चित हो सके। भगवान् की भक्ति का शुभारम्भ इस देह के आध्यात्मिकीकरण की शुरुआत है और इस तरह भगवान् के अनन्य भक्त का इस देह से सारा भौतिक सम्पर्क छूट जाता है। भगवद्धाम कोई कपोल-कल्पना नहीं है, जैसाकि नास्तिक या अज्ञानी लोग सोचते हैं। लेकिन वहाँ तक स्पुतनिक या अन्तरिक्ष-यान जैसे किसी भौतिक साधन द्वारा पहुँचा नहीं जा सकता। लेकिन इस शरीर को त्यागने के बाद अवश्य ही वहाँ पहुँचा जा सकता है और मनुष्य को चाहिए कि भक्तिमय सेवा के अभ्यास से वह भगवद्धाम वापस जाने की तैयारी करे। यह भगवद्धाम जाने के लिए प्रवेश पत्र का कार्य करती है और कुन्ती ने यही किया।
 
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