श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  1.15.38 
स्वराट् पौत्रं विनयिनमात्मन: सुसमं गुणै: ।
तोयनीव्या: पतिं भूमेरभ्यषिञ्चद्गजाह्वये ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
स्व-राट्—सम्राट; पौत्रम्—पौत्र को; विनयिनम्—भली-भाँति प्रशिक्षित; आत्मन:—अपना; सु-समम्—सभी प्रकार से समान; गुणै:—गुणों से; तोय-नीव्या:—समुद्रों से घिरा; पतिम्—स्वामी को; भूमे:—भूमि के; अभ्यषिञ्चत्—सिंहासन पर बिठाया; गजाह्वये—हस्तिनापुर की राजधानी में ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् उन्होंने हस्तिनापुर की राजधानी में, उन्होंने अपने पौत्र को सिंहासनारूढ़ किया, जो समुद्र से घिरी सारी भूमि के स्वामी तथा सम्राट के रूप में प्रशिक्षित था और उन्हीं के समान सुयोग्य था।
 
तात्पर्य
 समुद्रों से घिरी हुई सारी भूमि हस्तिनापुर के राजा के अधीन थी। महाराज युधिष्ठिर ने अपने पौत्र महाराज परीक्षित को, जो उन्हीं के समान सुयोग्य था, नागरिक के प्रति राजा के कर्तव्य को ध्यान में रखकर राज्य-प्रशासन में प्रशिक्षित किया। इस तरह महाराज युधिष्ठिर के भगवद्धाम जाने के पूर्व, परीक्षित उनके स्थान पर सिंहासनारूढ़ हो चुके थे। यहाँ पर महाराज परीक्षित के प्रसंग में विनयिनम् शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो महत्त्वपूर्ण है। कम से कम महाराज परीक्षित के समय तक, हस्तिनापुर का राजा पूरे संसार का सम्राट क्यों माना जाता था? इसका कारण यही था कि सम्राट के अच्छे शासन के कारण संसार के लोग सुखी थे। नागरिकों के सुख का कारण प्रचुर प्राकृतिक उपज थी—जैसे अन्न, फल, दुग्ध, औषधियाँ, रत्न, खनिज तथा जनता की आवश्यकता की सारी वस्तुएँ। वे शारीरिक व्याधियों, मन की चिन्ताओं तथा प्राकृतिक उत्पातों एवं अन्य जीवों द्वारा दी जाने वाली सारी आपदाओं से मुक्त थे। चूँकि सभी लोग सभी तरह से सुखी थे, अतएव कहीं कोई असन्तोष न था, यद्यपि राजनैतिक कारणों तथा श्रेष्ठता-प्रदर्शन के लिए विभिन्न प्रान्त के राजाओं में कभी-कभी युद्ध हुआ करते थे। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था, अतएव लोग छोटी-छोटी बातों को लेकर झगड़ते न थे। किन्तु धीरे-धीरे कलियुग का दुष्प्रभाव राजा तथा प्रजा दोनों के सद्गुणों में प्रविष्ट हो गया, अतएव शासक तथा शासित के मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न होने लगी। किन्तु शासक तथा शासित के मध्य विषमता के इस युग में भी आध्यात्मिक विकास तथा ईश्वर-चेतना सम्भव है। यही एक विशेष अधिकार उपलब्ध है।
 
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