श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  1.15.39 
मथुरायां तथा वज्रं शूरसेनपतिं तत: ।
प्राजापत्यां निरूप्येष्टिमग्नीनपिबदीश्वर: ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
मथुरायाम्—मथुरा में; तथा—भी; वज्रम्—वज्र को; शूरसेन-पतिम्—शूरसेन का राजा; तत:—तत्पश्चात्; प्राजापत्याम्— प्रजापति यज्ञ; निरूप्य—सम्पन्न करके; इष्टिम्—लक्ष्य; अग्नीन्—अग्नि को; अपिबत्—अपने में स्थापित किया; ईश्वर:— समर्थ ।.
 
अनुवाद
 
 तब उन्होंने अनिरुद्ध (भगवान् कृष्ण के पौत्र) के पुत्र वज्र को मथुरा में शूरसेन का राजा बना दिया। तत्पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ किया और गृहस्थ जीवन त्यागने के लिए अपने भीतर अग्नि प्रतिष्ठित की।
 
तात्पर्य
 महाराज युधिष्ठिर ने महाराज परीक्षित को हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठाकर तथा भगवान् कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को मथुरा का राजा बनाकर संन्यास ग्रहण कर लिया। वर्णाश्रम धर्म, गुण और कार्य की दृष्टि से वास्तविक मानव-जीवन का शुभारम्भ है और महाराज युधिष्ठिर तो इस वर्णाश्रम धर्म के रक्षक थे, अतएव उन्होंने शासन का भार प्रशिक्षित राजकुमार, महाराज परीक्षित को सौंप दिया और स्वयं संन्यासी बन गये। वर्णाश्रम धर्म की वैज्ञानिक पद्धति मानव जीवन को चार वृत्तिपरक विभागों तथा चार आश्रमों में विभाजित करती है। जीवन के चार आश्रम हैं—ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी। सभी को इन चारों का पालन करना आवश्यक है, चाहे उसका वृत्तिपरक- विभाग कुछ भी हो। आधुनिक राजनेता सक्रिय जीवन से विरत नहीं होना चाहते, भले ही वे कितने ही बूढ़े क्यों न हो जाँय, लेकिन महाराज युधिष्ठिर आदर्श राजा थे, अतएव वे स्वेच्छा से प्रशासनिक जीवन से विरत हो गये, जिससे वे अगले जीवन की तैयारी कर सकें। हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने जीवन की ऐसी व्यवस्था करे कि जीवन की अन्तिम व्यवस्था के कम से कम अन्तिम पन्द्रह-बीस वर्ष पूरी तरह भगवान् की सेवा में लगाये जा सकें, जिससे जीवन की चरम सिद्धि प्राप्त हो सके। यह सचमुच नादानी है कि जीवन का सारा समय भौतिक भोग तथा सकाम कर्मों में लगाया जाय, क्योंकि जब तक मन भौतिक भोग के लिए सकाम कर्मों में लगा रहता है, तब तक बद्धजीवन या भवबन्धन से बाहर निकलने की कोई गुंजाईश नहीं रहती। किसी भी व्यक्ति को जीवन की चरम सिद्धि प्राप्त करने के परम कार्य की, अर्थात् भगवद्धाम जाने की, उपेक्षा करने की आत्मघाती नीति नहीं अपनानी चाहिए।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥